"किसलिए आऊं तुम्हारे द्वार? / गोपालदास "नीरज"" के अवतरणों में अंतर
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+ | जब तुम्हारी ही हृदय में याद हर दम, | ||
+ | लोचनों में जब सदा बैठे स्वयं तुम, | ||
+ | फिर अरे क्या देव, दानव क्या, मनुज क्या? | ||
+ | मैं जिसे पूजूं जहां भी तुम वहीं साकार ! | ||
+ | किसलिए आऊं तुम्हारे द्वार ? | ||
− | + | क्या कहा- 'सपना वहां साकार होगा, | |
− | + | मुक्ति औ अमरत्व पर अधिकार होगा, | |
− | + | किन्तु मैं तो देव! अब उस लोक में हूं | |
− | + | है जहां करती अमरता मत्यु का श्रृंगार। | |
− | + | क्या करूं आकर तुम्हारे द्वार ? | |
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− | क्या कहा- 'सपना वहां साकार होगा, | + | तृप्ति-घट दिखला मुझे मत दो प्रलोभन, |
− | मुक्ति औ अमरत्व पर अधिकार होगा, | + | मत डुबाओ हास में ये अश्रु के कण, |
− | किन्तु मैं तो देव! अब उस लोक में हूं | + | क्योंकि ढल-ढल अश्रु मुझ से कह गए हैं |
− | है जहां करती अमरता मत्यु का श्रृंगार। | + | 'प्यास मेरी जीत, मेरी तृप्ति ही है हार!' |
− | क्या करूं आकर तुम्हारे द्वार ? | + | मत कहो- आओ हमारे द्वार। |
− | + | ||
− | तृप्ति-घट दिखला मुझे मत दो प्रलोभन, | + | आज मुझमें तुम, तुम्हीं में मैं हुआ लय, |
− | मत डुबाओ हास में ये अश्रु के कण, | + | अब न अपने बीच कोई भेद-संशय, |
− | क्योंकि ढल-ढल अश्रु मुझ से कह गए हैं | + | क्योंकि तिल-तिलकर गला दी प्राण! मैंने |
− | 'प्यास मेरी जीत, मेरी तृप्ति ही है हार!' | + | थी खड़ी जो बीच अपने चाह की दीवार। |
− | मत कहो- आओ हमारे द्वार। | + | व्यर्थ फिर आना तुम्हारे द्वार॥ |
− | + | ||
− | आज मुझमें तुम, तुम्हीं में मैं हुआ लय, | + | दूर कितने भी रहो तुम पास प्रतिपल, |
− | अब न अपने बीच कोई भेद-संशय, | + | क्योंकि मेरी साधना ने पल-निमिष चल |
− | क्योंकि तिल-तिलकर गला दी प्राण! मैंने | + | कर दिए केन्द्रित सदा को ताप-बल से |
− | थी खड़ी जो बीच अपने चाह की दीवार। | + | विश्व में तुम और तुम में विश्वभर का प्यार। |
− | व्यर्थ फिर आना तुम्हारे द्वार॥ | + | |
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− | दूर कितने भी रहो तुम पास प्रतिपल, | + | |
− | क्योंकि मेरी साधना ने पल-निमिष चल | + | |
− | कर दिए केन्द्रित सदा को ताप-बल से | + | |
− | विश्व में तुम और तुम में विश्वभर का प्यार। | + | |
हर जगह ही अब तुम्हारा द्वार॥ | हर जगह ही अब तुम्हारा द्वार॥ | ||
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21:09, 19 जुलाई 2018 के समय का अवतरण
जब तुम्हारी ही हृदय में याद हर दम,
लोचनों में जब सदा बैठे स्वयं तुम,
फिर अरे क्या देव, दानव क्या, मनुज क्या?
मैं जिसे पूजूं जहां भी तुम वहीं साकार !
किसलिए आऊं तुम्हारे द्वार ?
क्या कहा- 'सपना वहां साकार होगा,
मुक्ति औ अमरत्व पर अधिकार होगा,
किन्तु मैं तो देव! अब उस लोक में हूं
है जहां करती अमरता मत्यु का श्रृंगार।
क्या करूं आकर तुम्हारे द्वार ?
तृप्ति-घट दिखला मुझे मत दो प्रलोभन,
मत डुबाओ हास में ये अश्रु के कण,
क्योंकि ढल-ढल अश्रु मुझ से कह गए हैं
'प्यास मेरी जीत, मेरी तृप्ति ही है हार!'
मत कहो- आओ हमारे द्वार।
आज मुझमें तुम, तुम्हीं में मैं हुआ लय,
अब न अपने बीच कोई भेद-संशय,
क्योंकि तिल-तिलकर गला दी प्राण! मैंने
थी खड़ी जो बीच अपने चाह की दीवार।
व्यर्थ फिर आना तुम्हारे द्वार॥
दूर कितने भी रहो तुम पास प्रतिपल,
क्योंकि मेरी साधना ने पल-निमिष चल
कर दिए केन्द्रित सदा को ताप-बल से
विश्व में तुम और तुम में विश्वभर का प्यार।
हर जगह ही अब तुम्हारा द्वार॥