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कुरुक्षेत्र / प्रथम सर्ग / भाग 1

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|संग्रह= कुरुक्षेत्र / रामधारी सिंह 'दिनकर'
}}
 <poem>
[[कुरुक्षेत्र / प्रथम सर्ग / भाग 2|अगला भाग >>]]
वह कौन रोता है वहाँ-
इतिहास के अध्याय पर,
जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहू का मोल है
प्रत्यय किसी बूढे, कुटिल नीतिज्ञ के व्यवहार का;
जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष<ref>श्वेत, धवल, दीप्त</ref> है;
जो आप तो लड़ता नहीं,
कटवा किशोरों को मगर,
आश्वस्त होकर सोचता,
शोणित बहा, लेकिन, गयी बच लाज सारे देश की?
और तब सम्मान से जाते गिने
नाम उनके, देश-मुख की लालिमा
है बची जिनके लुटे सिन्दूर से;
देश की इज्जत बचाने के लिए
या चढा जिसने दिये निज लाल हैं।
वह कौन रोता है वहाँ-<br>इतिहास के अध्याय पर,<br><br> जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहु का मोल है<br>प्रत्यय किसी बूढे, कुटिल नीतिज्ञ के व्याहार का;<br>जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है;<br><br> जो आप तो लड़ता नहीं,<br>कटवा किशोरों को मगर,<br>आश्वस्त होकर सोचता,<br>शोनित बहा, लेकिन, गयी बच लाज सारे देश की?<br><br> और तब सम्मान से जाते गिने<br>नाम उनके, देश-मुख की लालिमा<br>है बची जिनके लुटे सिन्दूर से;<br>देश की इज्जत बचाने के लिए<br>या चढा जिनने दिये निज लाल हैं।<br><br> ईश जानें, देश का लज्जा विषय<br>तत्त्व तत्व है कोई कि केवल आवरण<br>उस हलाहल-सी कुटिल द्रोहाग्नि का<br>जो कि जलती आ रही चिरकाल से<br>स्वार्थ-लोलुप सभ्यता के अग्रणी<br>नायकों के पेट में जठराग्नि-सी।<br><br>
विश्व-मानव के हृदय निर्द्वेष में<br>मूल हो सकता नहीं द्रोहाग्नि का;<br>चाहता लड़ना नहीं समुदाय है,<br>फैलतीं लपटें विषैली व्यक्तियों की साँस से।<br><br>
हर युद्ध के पहले द्विधा लड़ती उबलते क्रोध से,<br>हर युद्ध के पहले मनुज है सोचता, क्या शस्त्र ही-<br>उपचार एक अमोघ है<br>अन्याय का, अपकर्ष का, विष का गरलमय द्रोह का!<br><br>
लड़ना उसे पड़ता मगर।<br>औ' जीतने के बाद भी,<br>रणभूमि में वह देखता है सत्य को रोता हुआ;<br>वह सत्य, है जो रो रहा इतिहास के अध्याय में<br>विजयी पुरुष के नाम पर कीचड़ नयन का डालता।<br><br>
उस सत्य के आघात से<br>हैं झनझना उठ्ती उठती शिराएँ प्राण की असहाय-सी,<br>सहसा विपंचि लगे कोई अपरिचित हाथ ज्यों।<br>वह तिलमिला उठता, मगर,<br>है जानता इस चोट का उत्तर न उसके पास है।<br><br>
सहसा हृदय को तोड़कर<br>कढती प्रतिध्वनि प्राणगत अनिवार सत्याघात की-<br>'नर का बहाया रक्त, हे भगवान! मैंने क्या किया<br>लेकिन, मनुज के प्राण, शायद, पत्थरों के हैं बने।<br><br>
इस दंश के दुख भूल कर<br>होता समर-आरूढ फिर;<br>फिर मारता, मरता,<br>विजय पाकर बहाता अश्रु है।<br><br>
यों ही, बहुत पहले कभी कुरुभूमि में<br>नर-मेध की लीला हुई जब पूर्ण थी,<br>पीकर लहू जब आदमी के वक्ष का<br>वज्रांग पाण्डव भीम का मन हो चुका परिशान्त था।<br><br>
और जब व्रत-मुक्त-केशी द्रौपदी,<br>मानवी अथवा ज्वलित, जाग्रत शिखा प्रतिशोध की<br>दाँत अपने पीस अन्तिम क्रोध से,<br>रक्त-वेणी कर चुकी थी केश की,<br>केश जो तेरह बरस से थे खुले।<br><br>
और जब पविकाय पाण्डव भीम ने<br>द्रोण-सुत के सीस शीश की मणि छीन कर<br>हाथ में रख दी प्रिया के मग्न हो<br>पाँच नन्हें बालकों के मुल्यमूल्य-सी।<br><br>
कौरवों का श्राद्ध करने के लिए<br>या कि रोने को चिता के सामने,<br>शेष जब था रह गया कोई नहीं<br>एक वृद्धा, एक अन्धे के सिवा।<br><br>
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