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पहाड़ी नदी
कोसों चलती नित;
तुम सागर
तुमसे मिलने की
लगी लगन
रोकें राह पाषाण
किन्तु फिर भी
कठोर सीना चीर
सहती पीर
आँचल धरा के तल
लिखती विजय ही।
-०-