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बुत रवायात के जो ढाए हैं
हम भी इक इंक़लाब लाये हैं
तीरगी के मुहीब सहरा में
जुस्तजू ने दिये जलाए हैं
उनको तूफां से आगही कैसी
वो जो साहिल पे मुस्कुराए हैं
देख इंसां का जज़्ब-ए-तख़लीक़
इसने ख़ालिक के बुत बनाए हैं।