भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"कोई बुत में तराशा जा रहा है / अजय अज्ञात" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अजय अज्ञात |अनुवादक= |संग्रह=जज़्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
10:07, 30 सितम्बर 2018 के समय का अवतरण
कोई बुत में तराशा जा रहा है
कोई रस्ते में ठोकर खा रहा है
सितम कैसा वो मुझ पर ढा रहा है
मज़ा जीने का मुझ को आ रहा है
ज़मीं दिल की रही बंजर हमेशा
समंदर आँखों से बहता रहा है
ज़रा से लब मेरे क्या मुस्कुराए
तेरा चेहरा उतरता जा रहा है
करो इख़लास की शमअ को रौशन
अँधेरा नफ़रतों का छा रहा है