भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"हवस न रक्खे मकानों की, कारख़ानों की / अनु जसरोटिया" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनु जसरोटिया |अनुवादक= |संग्रह=ख़...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

12:48, 30 सितम्बर 2018 के समय का अवतरण

हवस न रक्खे मकानों की, कारख़ानों की
बशर को सिर्फ ज़रुरत है चार दानों की

भरेंगें अपने ख़ज़ाने हम अपनी मेहनत से
नहीं तलाश हमें गुमशुदा ख़ज़ानों की

कमी रहेगी न कुछ ग़म के रिज़्क़ की हमको
जो मह्रबानी रही हम पे मह्रबानों की

न इन में झांक के देखो कभी, तो अच्छा है
है ज़ात छोटी बहुत इन बड़े घरानों की

सपूत हिन्द के हैं ये, नहीं कभी डरते
चली भी जाऐ अगर जान इन जवानों की

किसी ने रुक के कभी आज तक नहीं सोचा
कि रात कैसे गुज़रती है बे-ठिकानों की

जो नेक काम करोगे तो नाम पाओगे
नहीं रहेगी कमी कोई क़द्र-दानों की