भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"साया भी जहां अपना, शजर छोड़ रहा है / अनु जसरोटिया" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनु जसरोटिया |अनुवादक= |संग्रह=ख़...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
12:53, 30 सितम्बर 2018 के समय का अवतरण
साया भी जहां अपना, शजर छोड़ रहा है
दिल ऐसी हर इक राह-गुज़र छोड़ रहा है
रोई है कोई खिड़की, तो सिसकें हैं दरो-बाम
ये रात गए कौन नगर छोड़ रहा है
तंग आ के शबो- रोज़्ा की बदहाली से
वो धन के लिए गांव का घर छोड़ रहा है
कल तक जो बुज़्ाुर्गों का अदब करता था बच्चा
इस युग में बुज़्ाुर्गों का वो डर छोड़ रहा है
मजबूर हुआ होगा वो क्या जानिए कितना
इक बाप कि बेटे का जो दर छोड़ रहा है
अब वो भी नज़र आते हैं बेचैन से हम को
कुछ अपना असर दीदा-ए-तर छोड़ रहा है
औलाद कहां राह पे नेकी की चलेगी
जब बाप ही नेकी की डगर छोड़ रहा है