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"हज़ार ख़्वाब हमारी शबों में आते हैं / विनय कुमार" के अवतरणों में अंतर
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हम अपने ख़याल के बादल से छत बनाते हैं।<BR><BR> | हम अपने ख़याल के बादल से छत बनाते हैं।<BR><BR> | ||
− | कहाँ-कहाँ की लिए रेत उफनता दरिया | + | कहाँ-कहाँ की लिए रेत उफनता दरिया<BR> |
जिन्हें पता है वही लोग पुल बनाते हैं।<BR><BR> | जिन्हें पता है वही लोग पुल बनाते हैं।<BR><BR> | ||
− | बिके नहीं है, बिकेंगे भी नहीं, कुछ करिए | + | बिके नहीं है, बिकेंगे भी नहीं, कुछ करिए<BR> |
अजीब आइने हैं दाग़ भी दिखाते हैं।<BR><BR> | अजीब आइने हैं दाग़ भी दिखाते हैं।<BR><BR> | ||
− | जितनी होती थी वजह बाल गंवानें की कभी | + | जितनी होती थी वजह बाल गंवानें की कभी<BR> |
उससे कुछ कम पे यहाँ लोग सर गंवाते हैं।<BR><BR> | उससे कुछ कम पे यहाँ लोग सर गंवाते हैं।<BR><BR> | ||
− | हमारे ख़याल रोशनी में नहा लेते हैं | + | हमारे ख़याल रोशनी में नहा लेते हैं<BR> |
किसी की राह में जब भी दिया जलाते हैं।<BR><BR> | किसी की राह में जब भी दिया जलाते हैं।<BR><BR> |
18:51, 29 जुलाई 2008 के समय का अवतरण
हज़ार ख़्वाब हमारी शबों में आते हैं।
बुरा हो नींद का टूटी कि टूट जाते हैं।
हम ठहाकों की जगह सिर्फ मुस्कुराते हैं।
षोर के शहर में आवाज़ यूँ उठाते हैं।
वो आसमान है उसको ग़ुरूर सूरज का
हम अपने ख़याल के बादल से छत बनाते हैं।
कहाँ-कहाँ की लिए रेत उफनता दरिया
जिन्हें पता है वही लोग पुल बनाते हैं।
बिके नहीं है, बिकेंगे भी नहीं, कुछ करिए
अजीब आइने हैं दाग़ भी दिखाते हैं।
जितनी होती थी वजह बाल गंवानें की कभी
उससे कुछ कम पे यहाँ लोग सर गंवाते हैं।
हमारे ख़याल रोशनी में नहा लेते हैं
किसी की राह में जब भी दिया जलाते हैं।