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"ज़िन्दगी से बेखबर है आदमी / मृदुला झा" के अवतरणों में अंतर

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नेह का वरदान वो ईश्वर दिया।
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आज कितना दर-ब-दर है आदमी।
  
बेमुरौव्वत बेवफ़ा तो हम नहीं,
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कत्ल पर भी उफ तलक करता नहीं,
चाक-दामन तुमने लेकिन कर दिया।
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हो गया अब बेअसर है आदमी।
  
जब घिरी काली घटा झूले लगे,
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ग़म छुपाने के हज़ारों रास्ते,
दर्द तनहाई ने दिल में भर दिया।
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जा रहा जाने किधर है आदमी।
  
सुरमई थी शाम हम जब थे मिले,
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मोहतरम कहने लगा शैतान को,
ख़्वाब को जैसे किसी ने पर दिया।
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सोच में बिल्कुल शिफर है आदमी।
 
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माँगती हो दिल क्या मुझसे ऐ ‘मृदुल’,
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मैने, लो उल्फत में अपना सर दिया।
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बेरुखी जब मिल रही सौगात में,
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ढूंढ़ता क्यों हम सफर है आदमी।
 
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15:38, 30 अप्रैल 2019 का अवतरण

आज कितना दर-ब-दर है आदमी।

कत्ल पर भी उफ तलक करता नहीं,
हो गया अब बेअसर है आदमी।

ग़म छुपाने के हज़ारों रास्ते,
जा रहा जाने किधर है आदमी।

मोहतरम कहने लगा शैतान को,
सोच में बिल्कुल शिफर है आदमी।

बेरुखी जब मिल रही सौगात में,
ढूंढ़ता क्यों हम सफर है आदमी।