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"वो कच्चा घर वो आँगन / विरेन सांवङिया" के अवतरणों में अंतर

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12:00, 3 जुलाई 2019 के समय का अवतरण

वो कच्चा घर वो आँगन
वो गलियाँ मेरे गाँव की
बडा याद आती हैं, बडा याद आती हैं

माटी का था चूल्हा
चटनी सिलबट्टे के साथ की।
घर का देशी मक्खन
और रोटी माँ के हाथ की।
ताजे दूध से खाते थे हम
बची खिचड़ी रात की।
प्रथम रोटी दी जाती
गऊ माता को प्रभात की।
ताजे लिपे आँगन में छपती
वो तस्विरें न्नेह पाँव की
बडा याद ..

दो भाई साथ मे सोते
हम कौने खीच रजाई के।
छोटा होते ही मिल जाते
कपड़े बडके भाई के।
इन्जैकसन से डर लगता
ना रखते परहेज दवाई के।
घूर घूर के देखा करते
कुछ टंगे पोस्टर नाई के।
बस्ते तख्ति कलम दवात
वो स्कूल बोरडिंग गांव की
बडा याद ..

कहानी परियों की सुनते
हम किस्से लक्ष्मि बाई के।
बुढी अम्मा कहती थी
कुछ किस्से भूत डराई के।
टूटी चप्पल के पहिए
तास थे माचिस 22 के।
गिल्ली डंडा लुक्हा छिपी
खेल थे चोर सिपाही के।
बारिस होते ही तैराते
कागज की उस नाव की
बडा याद ..

चोरी से कहीं आम तोड़ते
कहीं मालन की रखवाली थी।
कहीं औंस से भीगे रस्ते तो
कहीं जोरों की हरियाली थी।
कहीं थी चिड़िया की चू चू
कहीं कोयल भी मतवाली थी।
कहीं मौरों की नृत्य करती
अदभुत छटा निराली थी।
थके हारे जहाँ खाना खाते
उन खेतों की ठंडी छाँव की
बडा याद ..

बैल गाडियाँ रोज सवेरे
खेतो की तरफ जाती थी।
थे कच्चे रस्ते खेतों के
जहाँ गौधूली गदराती थी।
खेत खलिहानो से पशुओं की
लम्बी लारें आती थी।
ढलते सूरज की लालिमा
सबके मन को भाती थी।
वो पहली बारिस मे महकी
मिटी मेरे गांव की
बडा याद ..

कुछ बडकी भाभी की सखियाँ
पानी भरने जाती थी।
कुछ उपले गोबर के लेकर
बाड़ों में से आती थी।
कुछ औंस से भिगी फसलो से
गठड़ी घास की लाती थी।
कुछ नववधु सी शर्माकर
हमसे भी बतयाती थी।
उन गलियों में पायल छनकाती
वो गौरी मेरे गांव की
बडा याद ..

कूए किनारे पिपल था
एक बरगद जोहड़ के पास था।
था बडे बुजुर्गो का जमघट
वहाँ बजता हुक्का तास था।
वि सी आर पे सारी रात
फिल्मो का बडा चास था
कई खेल थे गलियों मे आते
उनमे बन्दर का खास था।
वो खेल कबड्डी कुश्ती के
वो दंगल आखिरी दाव की
बडा याद ..

रात रेडियो दूर कहीं पे
गीत पुराने बजते थे।
बहार बरांदो में घर के
चरखे दिन भर चलते थे।
गलि मोड़ पे बुढिया के घर
धानी भूना करते थे।
मिट्टी तेल की चिमनी के
दीपक घर मे जलते थे।
वो पत्तल पर रखे लड्डू
वो बारातें मेरे गांव की
बडा याद ..