भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"मेरे नियति पुरूष / ईहातीत क्षण / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मृदुल कीर्ति |संग्रह = ईहातीत क्षण / मृदुल कीर्ति }}एक चि...) |
|||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
|रचनाकार=मृदुल कीर्ति | |रचनाकार=मृदुल कीर्ति | ||
|संग्रह = ईहातीत क्षण / मृदुल कीर्ति | |संग्रह = ईहातीत क्षण / मृदुल कीर्ति | ||
− | }}एक चिर प्यासी खंड -खंड दरकती धरती हूँ मैं | + | }} |
− | + | <poem> | |
+ | एक चिर प्यासी खंड -खंड दरकती धरती हूँ मैं | ||
साश्रु नयन प्रार्थना मैं लीन | साश्रु नयन प्रार्थना मैं लीन | ||
− | |||
सुधा प्राशन को भटकती हूँ मैं. | सुधा प्राशन को भटकती हूँ मैं. | ||
− | + | कर्म भोग अपने बहुत ही एकाग्र, | |
− | कर्म भोग अपने बहुत ही एकाग्र , | + | |
− | + | ||
संचेतन चेतना से भोग रही | संचेतन चेतना से भोग रही | ||
− | |||
भाषा परिभाषा से परे, | भाषा परिभाषा से परे, | ||
− | |||
भवितव्य को भोगते ही बँटा है, | भवितव्य को भोगते ही बँटा है, | ||
− | |||
संयोग यही. | संयोग यही. | ||
− | |||
अब अपने पार्थिव शरीर में, | अब अपने पार्थिव शरीर में, | ||
− | |||
अपने अस्तित्व की अस्मिता | अपने अस्तित्व की अस्मिता | ||
− | + | तापसी प्रवज्या और संतप्त आत्मा, | |
− | तापसी प्रवज्या और संतप्त आत्मा , | + | जन्मान्तर गामी, आत्म हारी विदग्धता, |
− | + | ||
− | जन्मान्तर गामी , आत्म हारी विदग्धता , | + | |
− | + | ||
मेरा नियति पुरूष, | मेरा नियति पुरूष, | ||
− | + | तुम्हे बनाने के पीछे, | |
− | + | नियंता का कोई विशेष प्रयोजन रहा होगा, | |
− | + | ||
− | नियंता का कोई विशेष प्रयोजन रहा होगा | + | |
− | + | ||
वरना इस छोटी सी आयु में, | वरना इस छोटी सी आयु में, | ||
− | |||
आगत, वागत, भोग कर, | आगत, वागत, भोग कर, | ||
− | + | अविचल तितिक्षा को, मुझ सा प्यासा, | |
− | अविचल तितिक्षा को , मुझ सा प्यासा , | + | |
− | + | ||
कोई न रहा होगा. | कोई न रहा होगा. | ||
+ | </poem> |
15:55, 17 अगस्त 2008 के समय का अवतरण
एक चिर प्यासी खंड -खंड दरकती धरती हूँ मैं
साश्रु नयन प्रार्थना मैं लीन
सुधा प्राशन को भटकती हूँ मैं.
कर्म भोग अपने बहुत ही एकाग्र,
संचेतन चेतना से भोग रही
भाषा परिभाषा से परे,
भवितव्य को भोगते ही बँटा है,
संयोग यही.
अब अपने पार्थिव शरीर में,
अपने अस्तित्व की अस्मिता
तापसी प्रवज्या और संतप्त आत्मा,
जन्मान्तर गामी, आत्म हारी विदग्धता,
मेरा नियति पुरूष,
तुम्हे बनाने के पीछे,
नियंता का कोई विशेष प्रयोजन रहा होगा,
वरना इस छोटी सी आयु में,
आगत, वागत, भोग कर,
अविचल तितिक्षा को, मुझ सा प्यासा,
कोई न रहा होगा.