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ग़म जो कर दे छू मंतर।
ऐसा दिखला कोई हुनर।
सब की सुन और मन की कर,
फिर न किसी मुश्किल से डर।
 
किसको, किसकी फ़िक्र यहाँ,
चलता जा तू राह गुज़र।
 
सब अपनी दुनिया में मस्त,
सब की अपनी मस्त नज़र।
 
तेरा मुक़द्दर साथ है जब,
‘नूर’ तुझे काहे का डर।
</poem>
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