भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"एक दिन मैं और तुम / प्रताप नारायण सिंह" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(→एक दिन मैं और तुम) |
|||
पंक्ति 7: | पंक्ति 7: | ||
{{KKCatNavgeet}} | {{KKCatNavgeet}} | ||
<poem> | <poem> | ||
+ | |||
एक दिन | एक दिन | ||
मैं और तुम, बस | मैं और तुम, बस |
00:57, 7 नवम्बर 2019 का अवतरण
एक दिन
मैं और तुम, बस
बीच में कोई न हो
खटकरम सब ज़िन्दगी के लुप्त हों
कष्ट, चिंताएँ सभी ही सुप्त हों
दृष्टि बाँधे
बस गदोली
गुदगुदाती तुम रहो
कोई आहट या प्रतीक्षा भी न हो
बाह्य जग की कोई इच्छा भी न हो
मैं कहूँ जो
तुम सुनो, बस
मैं सुनूँ जो तुम कहो
फूटता अंतः-क्षितिज से गीत हो
प्राण को जोड़े हृदय-संगीत हो
बाँह धर
तुममें बहूँ मैं
और तुम मुझमें बहो
हम झुलाएँ साँझ, दुपहर, भोर को
पालना कर पूर्व-पश्चिम छोर को
एक मैं
धर लूँ सिरा, और
एक तुम पकड़ी रहो