"ट्राम में एक याद / ज्ञानेन्द्रपति" के अवतरणों में अंतर
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− | चेतना पारीक कैसी हो? | + | चेतना पारीक, कैसी हो? |
पहले जैसी हो? | पहले जैसी हो? | ||
− | कुछ-कुछ | + | कुछ-कुछ खुश |
कुछ-कुछ उदास | कुछ-कुछ उदास | ||
कभी देखती तारे | कभी देखती तारे | ||
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अब भी कविता लिखती हो? | अब भी कविता लिखती हो? | ||
− | तुम्हें मेरी याद | + | तुम्हें मेरी याद न होगी |
लेकिन मुझे तुम नहीं भूली हो | लेकिन मुझे तुम नहीं भूली हो | ||
चलती ट्राम में फिर आँखों के आगे झूली हो | चलती ट्राम में फिर आँखों के आगे झूली हो | ||
− | तुम्हारी | + | तुम्हारी कद-काठी की एक |
नन्ही-सी, नेक | नन्ही-सी, नेक | ||
सामने आ खड़ी है | सामने आ खड़ी है | ||
तुम्हारी याद उमड़ी है | तुम्हारी याद उमड़ी है | ||
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चेतना पारीक, कैसी हो? | चेतना पारीक, कैसी हो? | ||
पहले जैसी हो? | पहले जैसी हो? | ||
− | आँखों में | + | |
+ | आँखों में उतरती है किताब की आग? | ||
नाटक में अब भी लेती हो भाग? | नाटक में अब भी लेती हो भाग? | ||
छूटे नहीं हैं लाइब्रेरी के चक्कर? | छूटे नहीं हैं लाइब्रेरी के चक्कर? | ||
− | मुझ | + | मुझ से घुमंतू कवि से होती है कभी टक्कर |
अब भी गाती हो गीत, बनाती हो चित्र? | अब भी गाती हो गीत, बनाती हो चित्र? | ||
अब भी तुम्हारे हैं बहुत-बहुत मित्र? | अब भी तुम्हारे हैं बहुत-बहुत मित्र? | ||
अब भी बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हो? | अब भी बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हो? | ||
अब भी जिससे करती हो प्रेम उसे दाढ़ी रखाती हो? | अब भी जिससे करती हो प्रेम उसे दाढ़ी रखाती हो? | ||
− | चेतना पारीक, अब भी तुम नन्हीं | + | चेतना पारीक, अब भी तुम नन्हीं गेंद-सी उल्लास से भरी हो? |
उतनी ही हरी हो? | उतनी ही हरी हो? | ||
− | उतना ही शोर है इस शहर में वैसा ही | + | उतना ही शोर है इस शहर में वैसा ही ट्रैफिक जाम है |
भीड़-भाड़ धक्का-मुक्का ठेल-पेल ताम-झाम है | भीड़-भाड़ धक्का-मुक्का ठेल-पेल ताम-झाम है | ||
− | ट्यूब | + | ट्यूब रेल बन रही चल रही ट्राम है. |
− | विकल है कलकत्ता दौड़ता अनवरत अविराम है | + | विकल है कलकत्ता दौड़ता अनवरत अविराम है. |
− | + | इस महावन में फिर भी एक गोरैया की जगह खाली है | |
− | इस महावन में फिर भी एक | + | एक छोटी चिड़िया से एक नन्हीं पत्ती से सूनी डाली है |
− | एक छोटी चिड़िया से एक | + | महानगर के महाट्टाहास में एक हँसी कम है |
− | महानगर के | + | विराट धक-धक में एक धड़कन कम है |
− | विराट धक-धक में एक धड़कन कम है कोरस में एक | + | कोरस में एक कंठ कम है |
− | तुम्हारे दो | + | तुम्हारे दो तलुवे जितनी जगह लेते हैं उतनी जगह खाली है |
− | वहाँ उगी है घास वहाँ चुई है ओस वहाँ किसी ने निगाह तक नहीं डाली है | + | वहाँ उगी है घास वहाँ चुई है ओस |
− | + | वहाँ किसी ने निगाह तक नहीं डाली है | |
− | फिर आया हूँ इस नगर में चश्मा पोंछ-पोंछ | + | फिर आया हूँ इस नगर में चश्मा पोंछ-पोंछ देखता हूँ |
− | आदमियों को | + | आदमियों को किताबों को निरखता लिखता हूँ |
− | रंग-बिरंगी बस-ट्राम रंग बिरंगे लोग | + | रंग-बिरंगी बस-ट्राम रंग-बिरंगे लोग |
रोग-शोक हँसी-खुशी योग और वियोग | रोग-शोक हँसी-खुशी योग और वियोग | ||
देखता हूँ अबके शहर में भीड़ दूनी है | देखता हूँ अबके शहर में भीड़ दूनी है | ||
− | देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है | + | देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है. |
− | + | ||
चेतना पारीक, कहाँ हो कैसी हो? | चेतना पारीक, कहाँ हो कैसी हो? | ||
− | बोलो, बोलो, पहले जैसी हो | + | बोलो, बोलो, पहले जैसी हो! |
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10:14, 19 फ़रवरी 2020 का अवतरण
चेतना पारीक, कैसी हो?
पहले जैसी हो?
कुछ-कुछ खुश
कुछ-कुछ उदास
कभी देखती तारे
कभी देखती घास
चेतना पारीक, कैसी दिखती हो?
अब भी कविता लिखती हो?
तुम्हें मेरी याद न होगी
लेकिन मुझे तुम नहीं भूली हो
चलती ट्राम में फिर आँखों के आगे झूली हो
तुम्हारी कद-काठी की एक
नन्ही-सी, नेक
सामने आ खड़ी है
तुम्हारी याद उमड़ी है
चेतना पारीक, कैसी हो?
पहले जैसी हो?
आँखों में उतरती है किताब की आग?
नाटक में अब भी लेती हो भाग?
छूटे नहीं हैं लाइब्रेरी के चक्कर?
मुझ से घुमंतू कवि से होती है कभी टक्कर
अब भी गाती हो गीत, बनाती हो चित्र?
अब भी तुम्हारे हैं बहुत-बहुत मित्र?
अब भी बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हो?
अब भी जिससे करती हो प्रेम उसे दाढ़ी रखाती हो?
चेतना पारीक, अब भी तुम नन्हीं गेंद-सी उल्लास से भरी हो?
उतनी ही हरी हो?
उतना ही शोर है इस शहर में वैसा ही ट्रैफिक जाम है
भीड़-भाड़ धक्का-मुक्का ठेल-पेल ताम-झाम है
ट्यूब रेल बन रही चल रही ट्राम है.
विकल है कलकत्ता दौड़ता अनवरत अविराम है.
इस महावन में फिर भी एक गोरैया की जगह खाली है
एक छोटी चिड़िया से एक नन्हीं पत्ती से सूनी डाली है
महानगर के महाट्टाहास में एक हँसी कम है
विराट धक-धक में एक धड़कन कम है
कोरस में एक कंठ कम है
तुम्हारे दो तलुवे जितनी जगह लेते हैं उतनी जगह खाली है
वहाँ उगी है घास वहाँ चुई है ओस
वहाँ किसी ने निगाह तक नहीं डाली है
फिर आया हूँ इस नगर में चश्मा पोंछ-पोंछ देखता हूँ
आदमियों को किताबों को निरखता लिखता हूँ
रंग-बिरंगी बस-ट्राम रंग-बिरंगे लोग
रोग-शोक हँसी-खुशी योग और वियोग
देखता हूँ अबके शहर में भीड़ दूनी है
देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है.
चेतना पारीक, कहाँ हो कैसी हो?
बोलो, बोलो, पहले जैसी हो!