"अरक्षित / कुमार विकल" के अवतरणों में अंतर
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दुनिया की सबसे ऊँची मीनार जैसी कविता | दुनिया की सबसे ऊँची मीनार जैसी कविता | ||
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शायद यही कविता उसे बचा रही है | शायद यही कविता उसे बचा रही है | ||
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एक विशाल दीवार पर | एक विशाल दीवार पर | ||
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19:03, 8 सितम्बर 2008 का अवतरण
वे रोज़ आते हैं
काले नक़ाबों में, चिकने शरीर ,लम्बे बलिष्ठ
पहचाने नहीं जाते.
मैं उन्हें पकड़ने की कोशिश करता हूँ
तो हाठॊं से फिसल जाते हैं
और भाग जाते हैं अँधेरे में अचीन्हे,
इस तरह वे रोज़ आते हैं.
और मैं भयातुर प्रतीक्षा में
अपनी सुरक्षा के उपाय सोचता हूँ
जबकि मैं जानता हूँ
कि आत्मरक्षा के समूचे शस्त्र
जो मुझको विरासत में मिले थे
पुराने पड़ गये हैं,कुण्ठित हो चुके हैं
अब मेरा सब कुछ अरक्षित है
मेरा शरीर शरीर की संभावनाएँ
मेरे संकल्प, आकांक्षाएँ,स्थापनाएँ
अस्तित्व की सहजताएँ
इस तरह वे रोज़ मेरी नंगी भुजाओं से निकल जाते हैं
और मेरे हाथों में
अपने चिकने शरीरों की मतली—भरी दुर्गंध छोड़ जाते हैं
इस दुर्गंध को लेकर मैं किधर जाऊँ
बाहर जाऊँगा तो लोग भाग जाएँगे
बच्चे दूध पीना छोड़ देंगे.
और जब पार्क के सारे गुलाबों पर
मेरे हाथों की दुर्गंध फैल जाएगी
तो लड़कियाँ उदास हो जाएँगी
और जब मेरी माँ को
मेरे शरीर से अपने दूध की गंध नहीं आएगी
तो वह मुझको पहचानने से इन्कार कर देगी
नहीं,मैं बाहर नहीं जाऊँगा
भीतर तो मैं अरक्षित हूँ
बाहर अजनबी बन जाऊँगा.
लेकिन—
मैं इन सारी आशंकाओं के साथ
बाहर आता हूँ
और एक जलूस में शामिल हो जाता हूँ
नारे लगाता हूँ
और अपने शरीर को सुरक्षित पाता हूँ.
मेरी माँ मुझे स्वीकार लेती है
काले नक़ाबपोशों के रहस्य बतलाती है
और उनसे लड़ने के तरीक़े सिखाती है.
लेकिन इस बार
हाँ, पहले भी ऐसे—
कई बार हो चुका है.
हर बार वह
एक खण्डहर मकान
काटे हुए पेड़
फ्हटे हुए झंडे
एक सूख रहे दरिया की तरह वापस आया है.
पहले हर बार—
वह अपना दुख किताबों को सुनाता था
उनसे कुछ ताक़त पाता था
इस बार वह
केवल एक पुरानी कविता गुनगुनाता है
एक लंबी… बहुत लम्बी कविता
दुनिया की सबसे बड़ी नदी जैसी कविता
दुनिया की सबसे ऊँची मीनार जैसी कविता
एक विशाल दीवार जैसी कविता….
शायद यही कविता उसे बचा रही है
दरिया की ओर बड़ते रेगिस्तान को पीछे हटा रही है
वरना उसके शरीर से जो बदबू आ रही है
वह तो उसे—
उस गर्त की ओर बढ़ा रही है
जिसका इंतज़ाम उसी दिन हो गया था
जब उसने अपना पहला क़दम
उनकी सुरक्षित दुनिया में बघ्ह़्आया था
और ज़ोर से एक ठहाका लगाया था.
उसने समझा था
वे उसके ठहाके से डरने लगे,
यह उसका भ्रम था
दरअसल वे डरने का नाटक करने लगे,
क्योंकि वे उसके चोर मन को जानते थे
रोशनी के शराबी बिम्बों वाली कविता के प्रति
उसके मोह को पहचानते थे
वे जानते थे
कुछ कहने के लिए जब वह अपना मुँह खोलेगा
उसका चोर उसके खिलाफ़ बोलेगा.
वे जानते थे—
ज़िन्दा आदमी को किस तरह
गर्त में उतारा जाता है
जो आदमी ज़हर से नहीं मरता
उसे किस तरह मोह से मारा जाता है.
हाँ, पहले भी ऐसे कई बार हो चुका है
कि वह पराजित लौट कर आया है
लेकिन इस बार…
वह अपने शरीर में
एक मरे हुए मोह की बदबू लाया है.
इस बदबू से उसे
अब वही पुरानी अनगढ़ कविता ही बचाएगी
खुरदरे हाथों वाली एक श्रमजीवी कविता
जो ऊँची मीनार पर
एक मशाल की तरह जलती है
एक विशाल दीवार पर
मज़बूत क़दमों से चलती है.