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"कनुप्रिया - तीसरा गीत / धर्मवीर भारती" के अवतरणों में अंतर

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मैं ने अक्सर तुम्हें कदम्ब के नीचे
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चुपचाप ध्यानमग्न खड़े पाया
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मैं न कोई अज्ञात वनदेवता समझ
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मैं न कोई अज्ञात वनदेवता समझ<br>
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मेरी प्रणाम-बद्ध अंजलियों में, कलाइयों में इस तरह
कितनी बार तुम्हें प्रणाम कर सिर झुकाया<br>
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तुम मेरे एक-एक अंग की एक-एक गति को
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इस सम्पूर्ण के लोभी तुम
तुम केवल निश्चल खड़े नहीं रहे<br>
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भला उस प्रणाम मात्र को क्यों स्वीकारते?
तुम्हें वह प्रणाम की मुद्रा और हाथों की गति<br>
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इस तरह भा गयी कि<br>
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तुम मेरे एक-एक अंग की एक-एक गति को<br>
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19:46, 28 मई 2020 का अवतरण

घाट से लौटते हुए
तीसरे पहर की अलसायी बेला में
मैं ने अक्सर तुम्हें कदम्ब के नीचे
चुपचाप ध्यानमग्न खड़े पाया
मैं न कोई अज्ञात वनदेवता समझ
कितनी बार तुम्हें प्रणाम कर सिर झुकाया
पर तुम खड़े रहे अडिग, निर्लिप्त, वीतराग, निश्चल!
तुम ने कभी उसे स्वीकारा ही नहीं !

दिन पर दिन बीतते गये
और मैं ने तुम्हें प्रणाम करना भी छोड़ दिया
पर मुझे क्या मालूम था कि वह अस्वीकृति ही
अटूट बन्धन बन कर
मेरी प्रणाम-बद्ध अंजलियों में, कलाइयों में इस तरह
लिपट जायेगी कि कभी खुल ही नहीं पायेगी।

और मुझे क्या मालूम था कि
तुम केवल निश्चल खड़े नहीं रहे
तुम्हें वह प्रणाम की मुद्रा और हाथों की गति
इस तरह भा गयी कि
तुम मेरे एक-एक अंग की एक-एक गति को
पूरी तरह बाँध लोगे

इस सम्पूर्ण के लोभी तुम
भला उस प्रणाम मात्र को क्यों स्वीकारते?
और मुझ पगली को देखो कि मैं
तुम्हें समझती थी कि तुम कितने वीतराग हो
कितने निर्लिप्त !