"कनुप्रिया - पाँचवाँ गीत / धर्मवीर भारती" के अवतरणों में अंतर
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 4: | पंक्ति 4: | ||
|संग्रह=कनुप्रिया / धर्मवीर भारती | |संग्रह=कनुप्रिया / धर्मवीर भारती | ||
}} | }} | ||
+ | {{KKCatGeet}} | ||
+ | <poem> | ||
+ | यह जो मैं गृहकाज से अलसा कर अक्सर | ||
+ | इधर चली आती हूँ | ||
+ | और कदम्ब की छाँह में शिथिल, अस्तव्यस्त | ||
+ | अनमनी-सी पड़ी रहती हूँ.... | ||
− | यह | + | यह पछतावा अब मुझे हर क्षण |
− | + | सालता रहता है कि | |
− | + | मैं उस रास की रात तुम्हारे पास से लौट क्यों आयी ? | |
− | + | जो चरण तुम्हारे वेणुवादन की लय पर | |
+ | तुम्हारे नील जलज तन की परिक्रमा दे कर नाचते रहे | ||
+ | वे फिर घर की ओर उठ कैसे पाये | ||
+ | मैं उस दिन लौटी क्यों- | ||
+ | कण-कण अपने को तुम्हें दे कर रीत क्यों नहीं गयी ? | ||
+ | तुम ने तो उस रास की रात | ||
+ | जिसे अंशत: भी आत्मसात् किया | ||
+ | उसे सम्पूर्ण बना कर | ||
+ | वापस अपने-अपने घर भेज दिया | ||
+ | पर हाय वही सम्पूर्णता तो | ||
+ | इस जिस्म के एक-एक कण में | ||
+ | बराबर टीसती रहती है, | ||
+ | तुम्हारे लिए ! | ||
− | + | कैसे हो जी तुम? | |
− | + | जब मैं जाना ही नहीं चाहती | |
− | + | तो बाँसुरी के एक गहरे अलाप से | |
− | + | मदोन्मत्त मुझे खींच बुलाते हो | |
− | + | ||
− | + | ||
− | मैं | + | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | और जब वापस नहीं आना चाहती | |
− | + | तब मुझे अंशत: ग्रहण कर | |
− | + | सम्पूर्ण बना कर लौटा देते हो !</poem> | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | और जब वापस नहीं आना चाहती | + | |
− | तब मुझे अंशत: ग्रहण कर | + | |
− | सम्पूर्ण बना कर लौटा देते हो ! < | + |
19:56, 28 मई 2020 का अवतरण
यह जो मैं गृहकाज से अलसा कर अक्सर
इधर चली आती हूँ
और कदम्ब की छाँह में शिथिल, अस्तव्यस्त
अनमनी-सी पड़ी रहती हूँ....
यह पछतावा अब मुझे हर क्षण
सालता रहता है कि
मैं उस रास की रात तुम्हारे पास से लौट क्यों आयी ?
जो चरण तुम्हारे वेणुवादन की लय पर
तुम्हारे नील जलज तन की परिक्रमा दे कर नाचते रहे
वे फिर घर की ओर उठ कैसे पाये
मैं उस दिन लौटी क्यों-
कण-कण अपने को तुम्हें दे कर रीत क्यों नहीं गयी ?
तुम ने तो उस रास की रात
जिसे अंशत: भी आत्मसात् किया
उसे सम्पूर्ण बना कर
वापस अपने-अपने घर भेज दिया
पर हाय वही सम्पूर्णता तो
इस जिस्म के एक-एक कण में
बराबर टीसती रहती है,
तुम्हारे लिए !
कैसे हो जी तुम?
जब मैं जाना ही नहीं चाहती
तो बाँसुरी के एक गहरे अलाप से
मदोन्मत्त मुझे खींच बुलाते हो
और जब वापस नहीं आना चाहती
तब मुझे अंशत: ग्रहण कर
सम्पूर्ण बना कर लौटा देते हो !