भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"चुपचाप / राकेश रेणु" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 6: पंक्ति 6:
 
}}
 
}}
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}
 +
{{KKVID|v=XxUvZUV_ZpM}}
 
<poem>
 
<poem>
 
बूँदें गिर रही हैं बादल से
 
बूँदें गिर रही हैं बादल से

19:39, 31 मई 2020 के समय का अवतरण

यदि इस वीडियो के साथ कोई समस्या है तो
कृपया kavitakosh AT gmail.com पर सूचना दें

बूँदें गिर रही हैं बादल से
एकरस, धीरे-धीरे, चुपचाप।

पत्ते झरते हैं भीगी टहनियों से
पीले-गीले-अनचाहे, चुपचाप।

रात झर रही है पृथ्वी पर
रुआँसी, बादलों, पियराए पत्तों सी, चुपचाप।

अव्यक्त दुख से भरी
अश्रुपूरित नेत्रों से
विदा लेती है प्रेयसी, चुपचाप।

पीड़ित हृदय, भारी क़दमों से
लौटता है पथिक, चुपचाप।

उम्मीद और सपनों भरा जीवन
इस तरह घटित होता है, चुपचाप।