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"मन सूखे पौधे लगते हैं / देवेन्द्र आर्य" के अवतरणों में अंतर

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आग नहीं तासीर से डरना  
 
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ठंडी दिखती है जलती है
 
ठंडी दिखती है जलती है
पल-पल बदल रहे हैं फिर भी हर पर इकलौते लगते हैं।
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पल-पल बदल रहे हैं फिर भी हर पल इकलौते लगते हैं।
  
 
भरता जाता रिसता जाता  
 
भरता जाता रिसता जाता  

09:17, 18 जून 2020 के समय का अवतरण

मन सूखे पौधे लगते हैं
रातों के बातूनी खंडहर दिन कितने बौने लगते हैं।

मन में उपजे मन में पनपे
मन में उम्रदराज़ हो गए
मन ही मन लड्डू से फूटे
मन ही मन नाराज़ हो गए
ढेरों-ढेरों बहुत बुरे भी कभी-कभी अच्छे लगते हैं।

बात नहीं बस ढंग कहने का
शाम नहीं चुप्पी खलती है
आग नहीं तासीर से डरना
ठंडी दिखती है जलती है
पल-पल बदल रहे हैं फिर भी हर पल इकलौते लगते हैं।

भरता जाता रिसता जाता
अजब गजब है अपना खाता
आगे दौड़े पीछे देखे
मन का भी कुछ समझ न आता
जीवन के पिछले पन्ने हम घाटे के सौदे लगते हैं।