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"एक बून्द / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’" के अवतरणों में अंतर

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थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी,
 
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी,
 
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी
 
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी
हाय क्यों घर छोड़कर मैं यों बढ़ी।
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हाय क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी।
  
 
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में,
 
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में,

17:48, 27 जून 2020 के समय का अवतरण

ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी,
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी
हाय क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी।

मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में,
चू पड़ूँगी या कमल के फूल में।
बह गई उस काल एक ऐसी हवा
वो समन्दर ओर आई अनमनी,
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
वो उसी में जा गिरी मोती बनी।

लोग यों ही हैं झिझकते सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर,
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर।