भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"कनुप्रिया - चौथा गीत / धर्मवीर भारती" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
|||
| पंक्ति 5: | पंक्ति 5: | ||
}} | }} | ||
{{KKCatGeet}} | {{KKCatGeet}} | ||
| + | {{KKVID|v=R_q1N6SGLOw}} | ||
<poem> | <poem> | ||
यह जो दोपहर के सन्नाटे में | यह जो दोपहर के सन्नाटे में | ||
19:32, 1 जुलाई 2020 के समय का अवतरण
यदि इस वीडियो के साथ कोई समस्या है तो
कृपया kavitakosh AT gmail.com पर सूचना दें
कृपया kavitakosh AT gmail.com पर सूचना दें
यह जो दोपहर के सन्नाटे में
यमुना के इस निर्जन घाट पर अपने सारे वस्त्र
किनारे रख
मैं घण्टों जल में निहारती हूँ
क्या तुम समझते हो कि मैं
इस भाँति अपने को देखती हूँ ?
नहीं, मेरे साँवरे !
यमुना के नीले जल में
मेरा यह वेतसलता-सा काँपता तन-बिम्ब, और उस के चारों
ओर साँवली गहराई का अथाह प्रसार जानते हो
कैसा लगता है-
मानो यह यमुना की साँवली गहराई नहीं है
यह तुम हो जो सारे आवरण दूर कर
मुझे चारों ओर से कण-कण, रोम-रोम
अपने श्यामल प्रगाढ़ अथाह आलिंगन में पोर-पोर
कसे हुए हो !
यह क्या तुम समझते हो
घण्टों-जल में-मैं अपने को निहारती हूँ
नहीं, मेरे साँवरे !
