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− | सिहर आता बिखर जाता, | + | वह कहा बेसुध पिकी ने, |
− | स्वप्न वह हठकर बसा इस साँस के परदेश में! | + | चिर पिपासित चातकी ने, |
− | मरण का उत्सव है, | + | सत्य जो दिव कह न पाया था अमिट संदेश में! |
− | गीत का उत्सव का अमर है, | + | |
− | मुखर कण का संग मेला, | + | खोज ही चिर प्राप्ति का वर, |
− | पर चला पंथी अकेला, | + | साधना ही सिद्धि सुन्दर, |
− | मिल गया गन्तव्य, पग को कंटकों के वेष में! | + | रुदन में कुख की कथा हे, |
− | यह बताया झर सुमन ने, | + | विरह मिलने की प्रथा हे, |
− | वह सुनाया मूक तृण ने, | + | शलभ जलकर दीप बन जाता निशा के शेष में! |
− | वह कहा बेसुध पिकी ने, | + | |
− | चिर पिपासित चातकी ने, | + | आँसुओं के देश में! |
− | सत्य जो दिव कह न पाया था अमिट संदेश में! | + | </poem> |
− | खोज ही चिर प्राप्ति का वर, | + | |
− | साधना ही सिद्धि सुन्दर, | + | |
− | रुदन में कुख की कथा हे, | + | |
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− | शलभ जलकर दीप बन जाता निशा के शेष में! | + | |
− | आँसुओं के देश में!< | + |
22:15, 12 जुलाई 2020 के समय का अवतरण
जो कहा रूक-रूक पवन ने
जो सुना झुक-झुक गगन ने,
साँझ जो लिखती अधूरा,
प्रात रँग पाता न पूरा,
आँक डाला लह दृगों ने एक सजल निमेष में!
अतल सागर में जली जो,
मुक्त झंझा पर चली जो,
जो गरजती मेघ-स्वर में,
जो कसकती तड़ित्-उर में,
प्यास वह पानी हुई इस पुलक के उन्मेष में!
दिश नहीं प्राचीर जिसको,
पथ नहीं जंजीर जिसको
द्वार हर क्षण को बनाता,
सिहर आता बिखर जाता,
स्वप्न वह हठकर बसा इस साँस के परदेश में!
मरण का उत्सव है,
गीत का उत्सव का अमर है,
मुखर कण का संग मेला,
पर चला पंथी अकेला,
मिल गया गन्तव्य, पग को कंटकों के वेष में!
यह बताया झर सुमन ने,
वह सुनाया मूक तृण ने,
वह कहा बेसुध पिकी ने,
चिर पिपासित चातकी ने,
सत्य जो दिव कह न पाया था अमिट संदेश में!
खोज ही चिर प्राप्ति का वर,
साधना ही सिद्धि सुन्दर,
रुदन में कुख की कथा हे,
विरह मिलने की प्रथा हे,
शलभ जलकर दीप बन जाता निशा के शेष में!
आँसुओं के देश में!