|रचनाकार=धर्मवीर भारती
|संग्रह=कनुप्रिया / धर्मवीर भारती
}}{{KKVID|v=XDMVi1g59F4}}{{KKCatKavita}}<poem>आज की रातहर दिशा में अभिसार के संकेत क्यों हैं?
आज की रात<br>हर दिशा में अभिसार हवा के संकेत हर झोंके का स्पर्शसारे तन को झनझना क्यों हैंजाता है?<br><br>
हवा के हर झोंके का स्पर्श<br>और यह क्यों लगता हैसारे कि यदि और कोई नहीं तोयह दिगन्त-व्यापी अँधेरा हीमेरे शिथिल अधखुले गुलाब-तन को झनझना क्यों जाता पी जाने के लिए तत्पर है?<br><br>
और यह ऐसा क्यों लगता भान होने लगा है<br>कि यदि और कोई नहीं तो<br>मेरे ये पाँव, माथा, पलकें, होंठयह दिगन्तमेरे अंग-अंग - जैसे मेरे नहीं हैं-व्यापी अँधेरा ही<br>मेरे शिथिल अधखुले गुलाबवश में नहीं हैं-तन को<br>बेबसपी जाने के लिए तत्पर है<br><br>एक-एक घूँट की तरहअँधियारे में उतरते जा रहे हैंखोते जा रहे हैंमिटते जा रहे हैं
और ऐसा क्यों भान होने लगा है<br>भय,कि मेरे ये पाँवआदिम भय, माथातर्कहीन, पलकेंकारणहीन भय जोमुझे तुमसे दूर ले गया था, होंठ<br>बहुत दूर-मेरे अंग-अंग - जैसे मेरे नहीं क्या इसी लिए कि मुझेदुगुने आवेग से तुम्हारे पास लौटा लावेऔर क्या यह भय की ही काँपती उँगलियाँ हैं-<br>जो मेरे वश में नहीं हैं-बेबस<br>एक-एक घूँट की तरह<br>बन्धन को शिथिलअँधियारे में उतरते करती जा रहे रही हैं<br>खोते जा रहे हैं<br>मिटते जा रहे हैं<br><br>और मैं कुछ कह नहीं पाती!
मेरे अधखुले होठ काँपने लगे हैंऔर भय,<br>आदिम भय, तर्कहीन, कारणहीन भय जो<br>मुझे तुमसे दूर ले गया था, बहुत दूर-<br>क्या इसी लिए कि मुझे<br>दुगुने आवेग से तुम्हारे पास लौटा लावे<br>कण्ठ सूख रहा हैऔर क्या यह भय की ही काँपती उँगलियाँ पलकें आधी मुँद गयी हैं<br>जो मेरे एक-एक बन्धन को शिथिल<br>करती जा रही हैं<br>और मैं कुछ कह सारे जिस्म में जैसे प्राण नहीं पाती!<br><br>हैं
मेरे अधखुले होठ काँपने लगे हैं<br>और कण्ठ सूख रहा मैंने कस कर तुम्हें जकड़ लिया है<br>और पलकें आधी मुँद गयी हैं<br>जकड़ती जा रही हूँऔर सारे जिस्म में जैसे निकट, और निकटकि तुम्हारी साँसें मुझमें प्रविष्ट हो जायेंतुम्हारे प्राण नहीं हैं<br><br>मुझमें प्रतिष्ठित हो जायेंतुम्हारा रक्त मेरी मृतपाय शिराओं में प्रवाहित होकरफिर से जीवन संचरित कर सके-
मैंने कस कर तुम्हें जकड़ लिया और यह मेरा कसाव निर्मम है<br>और जकड़ती अन्धा, और उन्माद भरा; और मेरी बाँहेंनागवधू की गुंजलक की भाँतिकसती जा रही हूँ<br>हैंऔर निकटतुम्हारे कन्धों पर, और निकट<br>बाँहों पर, होठों परकि तुम्हारी साँसें मुझमें प्रविष्ट हो जायें<br>नागवधू की शुभ्र दन्त-पंक्तियों के नीले-नीले चिह्नतुम्हारे प्राण मुझमें प्रतिष्ठित उभर आये हैंऔर तुम व्याकुल हो उठे हो जायें<br>तुम्हारा रक्त मेरी मृतपाय शिराओं धूप में प्रवाहित होकर<br>कसेफिर अथाह समुद्र की उत्ताल, विक्षुब्धहहराती लहरों के निर्मम थपेड़ों से जीवन संचरित कर सके-<br><br>छोटे-से प्रवाल-द्वीप की तरहबेचैन-
और यह मेरा कसाव निर्मम है<br>……………………………………….और अन्धा, और उन्माद भरा; और मेरी बाँहें<br>………………………………….नागवधू की गुंजलक की भाँति<br>……………………………कसती जा रही हैं<br>और तुम्हारे कन्धों पर, बाँहों पर, होठों पर<br>नागवधू की शुभ्र दन्त-पंक्तियों के नीले-नीले चिह्न<br>उभर आये हैं<br>और तुम व्याकुल हो उठे हो<br>धूप में कसे<br>अथाह समुद्र की उत्ताल, विक्षुब्ध<br>हहराती लहरों के निर्मम थपेड़ों से-<br>छोटे-से प्रवाल-द्वीप की तरह<br>बेचैन-<br><br>…………………….
……………………………………….<br>–………………………………….<br>उठो मेरे प्राण……………………………<br>…………………….<br><br>–<br>और काँपते हाथों से यह वातायन बंद कर दो
उठो मेरे प्राण<br>यह बाहर फैला-फैला समुद्र मेरा हैपर आज मैं उधर नहीं देखना चाहतीऔर काँपते हाथों से यह प्रगाढ़ अँधेरे के कण्ठ में झूमतीग्रहों-उपग्रहों और नक्षत्रों कीज्योतिर्माला मैं ही हूँऔर अंख्य ब्रह्माण्डों कादिशाओं का, समय काअनन्त प्रवाह मैं ही हूँपर आज मैं अपने को भूल जाना चाहती हूँउठो और वातायन बंद बन्द कर दो<br><br>कि आज अँधेरे में भी दृष्टियाँ जाग उठी हैंऔर हवा का आघात भी मांसल हो उठा हैऔर मैं अपने से ही भयभीत हूँ
यह बाहर फैला-फैला समुद्र मेरा है<br>–………………………………….………………………………………लो मेरे असमंजस!पर आज अब मैं उधर उन्मुक्त हूँऔर मेरे नयन अब नयन नहीं देखना चाहती<br>हैंयह प्रगाढ़ अँधेरे प्रतीक्षा के कण्ठ में झूमती<br>क्षण हैंग्रहों-उपग्रहों और नक्षत्रों की<br>मेरी बाँहें, बाँहें नहीं हैंज्योतिर्माला मैं ही हूँ<br>पगडण्डियाँ हैंऔर अंख्य ब्रह्माण्डों का<br>मेरा यह सारादिशाओं काहलका गुलाबी, समय का<br>गोरा, रुपहलीअनन्त प्रवाह मैं ही हूँ<br>धूप-छाँव वाला सीपी जैसा जिस्मपर आज मैं अपने को भूल जाना चाहती हूँ<br>अब जिस्म नहीं-उठो और वातायन बन्द कर दो<br>कि आज अँधेरे में भी दृष्टियाँ जाग उठी हैं<br>और हवा का आघात भी मांसल हो उठा सिर्फ एक पुकार है<br>और मैं अपने से ही भयभीत हूँ<br><br>
–<br>उठो मेरे उत्तर!और पट बन्द कर दोऔर कह दो इस समुद्र सेकि इसकी उत्ताल लहरें द्वार से टकरा कर लौट जाएँऔर कह दो दिशाओं सेकि वे हमारे कसाव में आजघुल जाएँ
………………………………….<br>और कह दो समय के अचूक धनुर्धर से………………………………………<br>कि अपने शायक उतार करतरकस में रख लेऔर तोड़ दे अपना धनुषऔर अपने पंख समेट कर द्वार पर चुपचापप्रतीक्षा करे-जब तक मैंअपनी प्रगाढ़ केलिकथा का अस्थायी विराम चिह्नअपने अधरों सेतुम्हारे वक्ष पर लिख कर, थक करशैथिल्य की बाँहों मेंडूब न जाऊँ…..
लो आओ मेरे असमंजसअधैर्य!<br>अब मैं उन्मुक्त हूँ<br>और मेरे नयन अब नयन नहीं दिशाएँ घुल गयी हैं<br>प्रतीक्षा के क्षण हैं<br>जगत् लीन हो चुका हैऔर मेरी बाँहें, बाँहें नहीं हैं<br>पगडण्डियाँ हैं<br>समय मेरे अलक-पाश में बँध चुका है।और मेरा यह सारा<br>इस निखिल सृष्टि केहलका गुलाबी, गोरा, रुपहली<br>अपार विस्तार मेंधूपतुम्हारे साथ मैं हूँ -छाँव वाला सीपी जैसा जिस्म<br>अब जिस्म नहींकेवल मैं-<br>सिर्फ एक पुकार है<br><br>
उठो मेरे उत्तर!<br>और पट बन्द कर दो<br>और कह दो इस समुद्र से<br>कि इसकी उत्ताल लहरें द्वार से टकरा कर लौट जाएँ<br>और कह दो दिशाओं से<br>कि वे हमारे कसाव में आज <br>घुल जाएँ<br><br> और कह दो समय के अचूक धनुर्धर से<br>कि अपने शायक उतार कर<br>तरकस में रख ले<br>और तोड़ दे अपना धनुष<br>और अपने पंख समेट कर द्वार पर चुपचाप<br>प्रतीक्षा करे-<br>जब तक मैं<br>अपनी प्रगाढ़ केलिकथा का अस्थायी विराम चिह्न<br>अपने अधरों से<br>तुम्हारे वक्ष पर लिख कर, थक कर<br>शैथिल्य की बाँहों में<br>डूब न जाऊँ…..<br><br> आओ मेरे अधैर्य!<br>दिशाएँ घुल गयी हैं<br>जगत् लीन हो चुका है<br>समय मेरे अलक-पाश में बँध चुका है।<br>और इस निखिल सृष्टि के<br>अपार विस्तार में<br>तुम्हारे साथ मैं हूँ - केवल मैं-<br><br> तुम्हारी अंतरंग केलिसखी!</poem>