भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"काटते—काटते वन गया / जहीर कुरैशी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(नया पृष्ठ: <poem> काटते—काटते वन गया जिन्दगी से हरापन गया सोच में भी प्रदूषण बढ...) |
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | <poem> | + | {{KKGlobal}} |
+ | {{KKRachna | ||
+ | |रचनाकार=जहीर कुरैशी | ||
+ | |संग्रह=भीड़ में सबसे अलग / जहीर कुरैशी | ||
+ | }} | ||
+ | [[Category:ग़ज़ल]]<poem> | ||
काटते—काटते वन गया | काटते—काटते वन गया | ||
जिन्दगी से हरापन गया | जिन्दगी से हरापन गया |
23:52, 19 सितम्बर 2008 के समय का अवतरण
काटते—काटते वन गया
जिन्दगी से हरापन गया
सोच में भी प्रदूषण बढ़ा
इसलिए, शुद्ध चिंतन गया
मंजिलों पर बनीं मंजिलें
गाँव—शैली का आँगन गया
भाई बस्ते उठाने के बाद
नन्हें—मुन्नों से बचपन गया
हम अकेले खड़े रह गए
दोस्तों का समर्थन गया
रूप—यौवन न काम आ सके
इस तरह स्वास्थ्य का धन गया
हर समय दौड़ते —भागते
शहरी लोगों का जीवन गया.