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{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
|अनुवादक=
|संग्रह=उभरते प्रतिमानों के रूप / हरिवंशराय बच्चन
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<poem>
यह विखंडित मूर्ति
मथुरा की सड़क पर
मिली मुझको,
शीश-हत,
जाँघें पसारे
खुले में विपरीत-रति-रत
अरे, यह तो पंश्चुली है!
यह कुमारी,
एक व्याभिचारी मुहल्ले की गली में
गले में डाले सुमिरनी,
नत-नयन,
प्रवचन रहस्य-भरा न जाने कौन, किसको,
मूक वाणी में सुनाती।
यह अछूती,
स्वच्छ पंकज की काली है!
तुमनेशेर यह-निर्भीक-मुद्रा-था वहाँ पर पड़ाचरती हैं बकरियाँ तृणभूलकर, वह सिंह की औलादपौरूष मूर्त है,अतिशय बली है।
प्रतिमा का सिर काट लियाऔर यह शिशु,सरल, निश्छल,सुप्त, स्वप्निल,शुभ्र, निर्मल,है पड़ा असहाय-सामल-मूत्र, गंद, ग़लीज़ के दुर्गंध-गच, गहरे गटर में।शरण को आई यहाँ परकिस प्रणय की बेकली है!
ओ गरूड़,तेरी जगह तो गगन में,भूमि पर लोगों ने उसे सिर झुकाना नहीं छोड़ा कैसे पड़ा है,पोटली की भाँति गुड़मुड़।घूरना था जिस नज़र से सूर्य कोतू मुझे अनिमिष देखा है।बाहुओं में अब कहाँ बल,उम्र मेरी ढल चली है।
तुमने मूर्ति को नहीं तोड़ापंश्चुली,श्रीकृष्ण की जन्मस्थलीयह तीर्थ है,इसको अपावन मत बना तू।पौर कवि का ठौर तेरा,जिस जगह सब कलुष-कल्मषशब्द-स्वाहा?कहीं उद्धारक नहीं है तेरा।
लोगों ओ कुमारी सुन,सुरक्षित है नहीं कौमार्य तेराइस गली में।कान किसके है सुने व्याख्यान तेरा,मौन, समझे।चल जहाँ कवि का तपस्थल,जिस जगह मनुहार अविचलकर रहा है वह गिरा की आस्‍था को -नहीं तोड़ा है।जो अब तक पसीजी-बहु छुए, बहुबार दुहराए स्वरों से;और दे कुछ अनछुए स्वर-शब्दजो हो, सुखद, सुपद, महार्थ अर्पित हों गिरा को,और कर दें तुष्टउस रस-रुप-ध्वनि-लय-छंद और अछंदमय मंगलमना को।
पाठ पहला,पाठ अंतिम,विश्व की इस पाठशाला काकि पहचानो स्वयं को,सिंह तू।कवि के यहाँ चल।है वहीं कांतार, अमित-प्रसार,जिसमें तू निशंक-विमुक्त विचरण,मुक्त गर्जन कर सकेगा।तू सिखा सौ जन्म तक भी रोज़मिमियाना बकरियाँ छोड़नेवाली नहीं हैं।और आस्‍था नेमेरे यहाँ कल से ही तुझेहरि-वंश प्रतिद्वंद्वी मिलेगा।साथ दे आवाज़, चाहे दे चुनौती,सोचनामुझको नहीं,स्वीकार करता हूँ इसी पल;है नहीं सौभाग्य इससे बड़ा कोई,मित्र समबल मिले,या फिर शत्रु समबल!
आज दे प्रश्रय हृदय मेंस्वप्नगत रूमानियत कोमैं नहीं तुझसे कहूँगा,तू नबी है।कटु-कठोर यथार्थ जीवन का बहुत बार-कुछदेख मैं अब तक चुका हूँ,और तेरा जन्म हीरूमानियत की लाश के ऊपर हुआ है।जो तुझे मैं दे रहा हूँएक मानव के लिए,बस, एक मानव की दुआ है।तुझे मैं अपने भवन ले चल रहा हूँ-वह कुमारी क्या प्रसव की पीर जाने,पुंश्चली जाने सुवन का स्नेह कैसे!मैं प्रसव की वेदना,वात्सल्य-दोनों जानता हूँ,क्योंकि कवि हूँ।जो अपने आप में हो अस्त,अपने आप में होता उदय,मैं स्वल्प रवि हूँ-एक ही में माँ तथा शिशु!-चल, वहीं पलआत्मजों के बीच मेरे, हो न उन्मन,मैं तुझे संवेदना ही नहीं दूँगा,समा लूँगा तुझे अपने मेंकि तुझमें समाऊँगा।माँ तुझे दूँगा,स्वयंजो शिशु सनातन।(सार्थक है नाम बच्चन)
कटे सिर को कटे धर पन्नगाशन,छोड़ भू का संकुचित-संपुटित आसन।उदर-ज्वाला शांत करने,उरग भक्षण के लिएउतरा धरा पर था कि तू खा-अधाअलसाया हुआ,लेता उबासी ऊँधता है!जानता है?बहुत दिवसों से जोड़ा तुझेआकाश कवि का ढूँढता है।समय ने कमज़ोर क्या, बेकार पाँवों को किया है,किंतु उड़ने के नलए अब भी हिया है।वैनतेय, पसार डैने,नहीं मानी हार मैंनेमैं समो दूँगा उन्हीं मेंआज अपने को,उड़ा ले जा मुझे ऊँचाइयों को-अभ्रभेदी।धरा पर धरा भी तो ठीक दिखलाई न देती।और ज्योति:क्षीण मेरे चक्षुओं को,तार्क्ष्य, दे निज भी अंगारवर्षी।अभी काम बहुत बड़ा है,बहुत कुछ जर्जर, गलित, मृत,काल-मर्दित,नया बह आया, भयावह, अनृतदुर्दर्शन, अशोभन,क्षर, अवांछित,अनुपयोगी,घृणित, गर्हितभस्म करने को पड़ा है।</poem>
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