"आँसू / जयशंकर प्रसाद / पृष्ठ २" के अवतरणों में अंतर
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प्रतिमा में सजीवता-सी | प्रतिमा में सजीवता-सी | ||
बस गयी सुछवि आँखों में | बस गयी सुछवि आँखों में | ||
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चुगने की मुद्रा ऐसे? | चुगने की मुद्रा ऐसे? | ||
− | विकसित | + | विकसित सरसिज वन-वैभव |
मधु-ऊषा के अंचल में | मधु-ऊषा के अंचल में | ||
उपहास करावे अपना | उपहास करावे अपना | ||
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कुछ सच्चा स्वयं बना था। | कुछ सच्चा स्वयं बना था। | ||
− | वह रूप रूप | + | वह रूप रूप था केवल |
या रहा हृदय भी उसमें | या रहा हृदय भी उसमें | ||
जड़ता की सब माया थी | जड़ता की सब माया थी | ||
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देती गलबाँही डाली | देती गलबाँही डाली | ||
फूलों का चुम्बन, छिड़ती | फूलों का चुम्बन, छिड़ती | ||
− | + | मधुपोन् की तान निराली। | |
मुरली मुखरित होती थी | मुरली मुखरित होती थी | ||
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फिर मिलन कुंज में मेरे | फिर मिलन कुंज में मेरे | ||
चाँदनी शिथिल अलसायी | चाँदनी शिथिल अलसायी | ||
− | सुख के सपनों से | + | सुख के सपनों से मेरे। |
लहरों में प्यास भरी है | लहरों में प्यास भरी है | ||
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छिप गयी कहाँ छू कर वे | छिप गयी कहाँ छू कर वे | ||
मलयज की मृदु हिलोरें | मलयज की मृदु हिलोरें | ||
− | क्यों घूम गयी | + | क्यों घूम गयी है आ कर |
करुणा कटाक्ष की कोरें। | करुणा कटाक्ष की कोरें। | ||
विस्मृति हैं, मादकता हैं | विस्मृति हैं, मादकता हैं | ||
− | + | मूर्च्छना भरी है मन में | |
कल्पना रही, सपना था | कल्पना रही, सपना था | ||
मुरली बजती निर्जन में। | मुरली बजती निर्जन में। | ||
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18:50, 17 अगस्त 2020 का अवतरण
घन में सुंदर बिजली-सी
बिजली में चपल चमक सी
आँखो में काली पुतली
पुतली में श्याम झलक सी
प्रतिमा में सजीवता-सी
बस गयी सुछवि आँखों में
थी एक लकीर हृदय में
जो अलग रही लाखों में।
माना कि रूप सीमा हैं
सुन्दर! तव चिर यौवन में
पर समा गये थे, मेरे
मन के निस्सीम गगन में।
लावण्य शैल राई-सा
जिस पर वारी बलिहारी
उस कमनीयता कला की
सुषमा थी प्यारी-प्यारी।
बाँधा था विधु को किसने
इन काली जंजीरों से
मणि वाले फणियों का मुख
क्यों भरा हुआ हीरों से?
काली आँखों में कितनी
यौवन के मद की लाली
मानिक मदिरा से भर दी
किसने नीलम की प्याली?
तिर रही अतृप्ति जलधि में
नीलम की नाव निराली
कालापानी वेला-सी
हैं अंजन रेखा काली।
अंकित कर क्षितिज पटी को
तूलिका बरौनी तेरी
कितने घायल हृदयों की
बन जाती चतुर चितेरी।
कोमल कपोल पाली में
सीधी सादी स्मित रेखा
जानेगा वही कुटिलता
जिसमें भौं में बल देखा।
विद्रुम सीपी सम्पुट में
मोती के दाने कैसे
हैं हंस न, शुक यह, फिर क्यों
चुगने की मुद्रा ऐसे?
विकसित सरसिज वन-वैभव
मधु-ऊषा के अंचल में
उपहास करावे अपना
जो हँसी देख ले पल में!
मुख-कमल समीप सजे थे
दो किसलय से पुरइन के
जलबिन्दु सदृश ठहरे कब
उन कानों में दुख किनके?
थी किस अनंग के धनु की
वह शिथिल शिंजिनी दुहरी
अलबेली बाहुलता या
तनु छवि सर की नव लहरी?
चंचला स्नान कर आवे
चंद्रिका पर्व में जैसी
उस पावन तन की शोभा
आलोक मधुर थी ऐसी!
छलना थी, तब भी मेरा
उसमें विश्वास घना था
उस माया की छाया में
कुछ सच्चा स्वयं बना था।
वह रूप रूप था केवल
या रहा हृदय भी उसमें
जड़ता की सब माया थी
चैतन्य समझ कर मुझमें।
मेरे जीवन की उलझन
बिखरी थी उनकी अलकें
पी ली मधु मदिरा किसने
थी बन्द हमारी पलकें।
ज्यों-ज्यों उलझन बढ़ती थी
बस शान्ति विहँसती बैठी
उस बन्धन में सुख बँधता
करुणा रहती थी ऐंठी।
हिलते द्रुमदल कल किसलय
देती गलबाँही डाली
फूलों का चुम्बन, छिड़ती
मधुपोन् की तान निराली।
मुरली मुखरित होती थी
मुकुलों के अधर बिहँसते
मकरन्द भार से दब कर
श्रवणों में स्वर जा बसते।
परिरम्भ कुम्भ की मदिरा
निश्वास मलय के झोंके
मुख चन्द्र चाँदनी जल से
मैं उठता था मुँह धोके।
थक जाती थी सुख रजनी
मुख चन्द्र हृदय में होता
श्रम सीकर सदृश नखत से
अम्बर पट भीगा होता।
सोयेगी कभी न वैसी
फिर मिलन कुंज में मेरे
चाँदनी शिथिल अलसायी
सुख के सपनों से मेरे।
लहरों में प्यास भरी है
है भँवर पात्र भी खाली
मानस का सब रस पी कर
लुढ़का दी तुमने प्याली।
किंजल्क जाल हैं बिखरे
उड़ता पराग हैं रूखा
हैं स्नेह सरोज हमारा
विकसा, मानस में सूखा।
छिप गयी कहाँ छू कर वे
मलयज की मृदु हिलोरें
क्यों घूम गयी है आ कर
करुणा कटाक्ष की कोरें।
विस्मृति हैं, मादकता हैं
मूर्च्छना भरी है मन में
कल्पना रही, सपना था
मुरली बजती निर्जन में।