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"जौहर / श्यामनारायण पाण्डेय / परिचय / पृष्ठ १" के अवतरणों में अंतर

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'''पहली चिनगारी'''
 
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थाल सजाकर किसे पूजने  
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चले प्रात ही मतवाले?
 
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कहाँ चले तुम राम नाम का
 
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मौलसिरी का यह गजरा
 
मौलसिरी का यह गजरा
 
किसके गज से पावन होगा?
 
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रोम कंटकित प्रेम - भरी
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इन आँखों में सावन होगा?
 
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क्या अपना पथ आए भूल?
 
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कहाँ तुम्हारा दीप जलेगा,
 
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इधर प्रयाग न गंगासागर,
 
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जहाँ जवानों की टोली,
 
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जहाँ आन पर माँ - बहनों की
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जला जला पावन होली
 
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वीर - मंडली गर्वित स्वर से
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जय माँ की जय जय बोली,
 
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जौहर - व्रत करना सीखा,
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स्वतंत्रता के लिए जहाँ
 
स्वतंत्रता के लिए जहाँ
 
बच्चों ने भी मरना सीखा,
 
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लेने सतियों की पद-धूल।
 
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वहीं हमारा दीप जलेगा,
 
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बैठ इसी मृगछाला पर॥
 
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नहीं रही, पर चिता - भस्म तो
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होगा ही उस रानी का।
 
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पड़ा कहीं न कहीं होगा ही,
 
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उस पर ही ये पूजा के सामान
 
उस पर ही ये पूजा के सामान
 
सभी अर्पण होंगे।
 
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आतुर पथिक चरण छू छूकर
 
आतुर पथिक चरण छू छूकर
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कैसे जली किले पर होली?
 
कैसे जली किले पर होली?
 
वीर सती की व्यथा कहो॥
 
वीर सती की व्यथा कहो॥
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नयन मूँदकर चुप न रहो,
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गत–व्याधि, समाधि लगे न कहीं।
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सती - कहानी कहने की,
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अन्तर से चाह भगे न कहीं॥
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आकुल कुल प्रश्नों को सुनकर
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मुकुलित नयनों को खोला।
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वीर-करुण-रस-सिंचित स्वर से
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सती-तीर्थ-यात्री बोला॥
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क्या न पद्मिनी-जौहर का
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आख्यान सुना प्राचीनों से?
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क्या न पढ़ा इतिहास सती का
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विद्या-निरत नवीनों से?
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यदि न सुना तो सुनो कहानी
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सती – पद्मिनी – रानी की।
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पर झुक झुककर करो वन्दना,
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पहले पहल भवानी की॥
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रूपवान था रतन, पद्मिनी
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रूपवती उसकी रानी।
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दम्पति के तन की शोभा से
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जगमग जगमग रजधानी॥
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रानी की कोमलता पर
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कोमलता ही बलिहारी थी।
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छुईमुई – सी कुँभला जाती,
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वह इतनी सुकुमारी थी॥
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राजमहल से छत पर निकली,
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हँसती शशि - किरणें आईं।
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मलिन न छवि छूने से हो,
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इससे विहरीं बन परछाईं॥
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मलयानिल पर रहती थी,
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वह कुसुम – सुरभि पर सोती थी।
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जग की पलकों पर बसकर,
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प्राणों से प्राण सँजोती थी॥
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ऊषा की स्वर्णिम किरणों
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के झूले पर झूला करती।
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राजमहल के नंदन - वन में,
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बेला सी फूला करती॥
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बिखरे केशों में अँधियाली,
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मुख पर छायी उजियाली।
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राका – अमा – मिलन होता था,
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भरी माँग की ले लाली॥
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बालों में सिन्दूर चिह्न ही
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था दो प्राणों का बंधन।
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मानो घनतम तिमिर चीरकर,
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हँसी उषा की एक किरन॥
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बालमृगी - सी आँखों में
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आकर्षण ने डेरा डाला।
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सुधा - सिक्त विद्रुम - अधरों पर
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मदिरा ने घेरा डाला॥
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मधुर गुलाबी गालों पर,
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मँडराती फिरती मधुपाली।
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एक घूँट पति साथ पिया मधु,
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चढ़ी गुलाबी पर लाली॥
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आँखों से सरसीरुह ने
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सम्मोहन जा जाकर सीखा।
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रानी का मधुवर्षी स्वर
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कोयल ने गा गाकर सीखा॥
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घूँघट – पट हट गया लाज से,
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मुसकाई जग मुसकाया।
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निःश्वासों की सरस सुरभि से
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फूलों में मधुरस आया॥
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अरुण कमल ने जिनके तप से
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इतनी सी लाली पाई।
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फूलों पर चलने से जिनमें
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नवनी - सी मृदुता आई॥
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फैल रही थी दिग्दिगन्त में
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जिनकी नख - छबि मतवाली,
 +
उन पैरों पर सह न सकी
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लाक्षारस की कृत्रिम लाली॥
 +
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नवल गुलाबों ने हँस हँसकर
 +
सुरभि रूप में भर डाली।
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कमल - कोष से उड़ उड़कर
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भौंरों ने भी भाँवर डाली॥
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जैसी रूपवती रानी थी,
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वैसा ही था पति पाया।
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मानो वासव साथ शची का
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रूप धरातल पर आया॥
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भरे यहीं से तंत्र – मंत्र
 +
मनसिज ने अपने बाणों में।
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पति के प्राणों में पत्नी थी,
 +
पति पत्नी के प्राणों में॥
 +
 +
दो मुख थे पर एक मधुरध्वनि,
 +
दो मन थे पर एक लगन।
 +
दो उर थे पर एक कल्पना,
 +
एक मगन तो अन्य मगन॥
 +
 +
विरह नाम से ही व्याकुलता,
 +
जीवन भर संयोग रहा।
 +
एक मनोहर सिंहासन पर,
 +
सूर्य - प्रभा का योग रहा॥
 +
 +
रानी कहती नव वसन्त में
 +
कोयल किसको तोल रही।
 +
पति के साथ सदा राका यह
 +
कुहू कुहू क्यों बोल रही?
 +
 +
सावन के रिमझिम में पापी
 +
डाल – डाल पर डोला क्यों?
 +
पी तो मेरे साथ – साथ
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‘पी कहाँ’ पपीहा बोला क्यों?
 +
 +
त्रिभुवन के कोने कोने में,
 +
रूप - राशि की ख्याति हुई।
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रूपवती के पातिव्रत पर
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गर्वित नारी – जाति हुई॥
 +
 +
ग्राम – ग्राम में, नगर – नगर में,
 +
डगर – डगर में, घर - घर में
 +
पति - पत्नी का ही बखान
 +
मुखरित था अवनी - अम्बर में॥
 +
 +
सुनी अलाउद्दीन राहु ने
 +
चन्द्रमुखी की तरुणाई।
 +
उसे विभव का लालच देकर,
 +
की ग्रसने की निठुराई॥
 +
 +
जितने अत्याचार किए
 +
उन सबका क्या वर्णन होगा!
 +
सुनने पर वह करुण कहानी
 +
विकल तुम्हारा मन होगा॥
 +
 +
बोला वह पथिक पुजारी से,
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पावन गाथा आरम्भ करो।
 +
चाहे जो हो पर दम्पति का
 +
मेरे अन्तर में त्याग भरो॥
 +
 +
दलबल लेकर खिलजी ने क्या
 +
गढ़ पर ललकार चढ़ाई की?
 +
क्या रावल के नरसिंहों से
 +
रानी के लिए लड़ाई की?
 +
 +
उस संगर का आख्यान कहो,
 +
तुम कहो कहानी रानी की।
 +
समझा समझा इतिहास कहो,
 +
तुम कहो कथा अभिमानी की॥
 +
 +
जप जप माला निर्भय वर्णन
 +
जौहर का करने लगा यती।
 +
आख्यान - सुधा अधिकारी के
 +
अन्तर में भरते लगा यती॥
 +
 +
माधव-निकुंज, काशी
 +
कार्तिकी, संवत १९९६
 
</poem>
 
</poem>

23:19, 17 अगस्त 2020 का अवतरण

पहली चिनगारी

थाल सजाकर किसे पूजने
चले प्रात ही मतवाले?
कहाँ चले तुम राम नाम का
पीताम्बर तन पर डाले?

कहाँ चले ले चन्दन अक्षत
बगल दबाए मृगछाला?
कहाँ चली यह सजी आरती?
कहाँ चली जूही माला?

ले मुंजी उपवीत मेखला
कहाँ चले तुम दीवाने?
जल से भरा कमंडलु लेकर
किसे चले तुम नहलाने?

मौलसिरी का यह गजरा
किसके गज से पावन होगा?
रोम कंटकित प्रेम-भरी
इन आँखों में सावन होगा?

चले झूमते मस्ती से तुम,
क्या अपना पथ आए भूल?
कहाँ तुम्हारा दीप जलेगा,
कहाँ चढ़ेगा माला-फूल?

इधर प्रयाग न गंगासागर,
इधर न रामेश्वर, काशी।
कहाँ किधर है तीर्थ तुम्हारा?
कहाँ चले तुम संन्यासी?

क्षण भर थमकर मुझे बता दो,
तुम्हें कहाँ को जाना है?
मन्त्र फूँकनेवाला जग पर
अजब तुम्हारा बाना है॥

नंगे पैर चल पड़े पागल,
काँटों की परवाह नहीं।
कितनी दूर अभी जाना है?
इधर विपिन है, राह नहीं॥

मुझे न जाना गंगासागर,
मुझे न रामेश्वर, काशी।
तीर्थराज चित्तौड़ देखने को
मेरी आँखें प्यासी॥

अपने अचल स्वतंत्र दुर्ग पर
सुनकर वैरी की बोली
निकल पड़ी लेकर तलवारें
जहाँ जवानों की टोली,

जहाँ आन पर माँ-बहनों की
जला जला पावन होली
वीर-मंडली गर्वित स्वर से
जय माँ की जय जय बोली,

सुंदरियों ने जहाँ देश - हित
जौहर-व्रत करना सीखा,
स्वतंत्रता के लिए जहाँ
बच्चों ने भी मरना सीखा,

वहीं जा रहा पूजा करने,
लेने सतियों की पद-धूल।
वहीं हमारा दीप जलेगा,
वहीं चढ़ेगा माला-फूल॥

वहीं मिलेगी शान्ति, वहीं पर
स्वस्थ हमारा मन होगा।
प्रतिमा की पूजा होगी,
तलवारों का दर्शन होगा॥

वहाँ पद्मिनी जौहर-व्रत कर
चढ़ी चिता की ज्वाला पर,
क्षण भर वहीं समाधि लगेगी,
बैठ इसी मृगछाला पर॥

नहीं रही, पर चिता-भस्म तो
होगा ही उस रानी का।
पड़ा कहीं न कहीं होगा ही,
चरण - चिह्न महरानी का॥

उस पर ही ये पूजा के सामान
सभी अर्पण होंगे।
चिता-भस्म -कण ही रानी के,
दर्शन-हित दर्पण होंगे॥

आतुर पथिक चरण छू छूकर
वीर - पुजारी से बोला;
और बैठने को तरु - नीचे,
कम्बल का आसन खोला॥

देरी तो होगी, पर प्रभुवर,
मैं न तुम्हें जाने दूँगा।
सती - कथा - रस पान करूँगा,
और मन्त्र गुरु से लूँगा॥

कहो रतन की पूत कहानी,
रानी का आख्यान कहो।
कहो सकल जौहर की गाथा,
जन जन का बलिदान कहो॥

कितनी रूपवती रानी थी?
पति में कितनी रमी हुई?
अनुष्ठान जौहर का कैसे?
संगर में क्या कमी हुई?

अरि के अत्याचारों की
तुम सँभल सँभलकर कथा कहो।
कैसे जली किले पर होली?
वीर सती की व्यथा कहो॥

नयन मूँदकर चुप न रहो,
गत–व्याधि, समाधि लगे न कहीं।
सती - कहानी कहने की,
अन्तर से चाह भगे न कहीं॥

आकुल कुल प्रश्नों को सुनकर
मुकुलित नयनों को खोला।
वीर-करुण-रस-सिंचित स्वर से
सती-तीर्थ-यात्री बोला॥

क्या न पद्मिनी-जौहर का
आख्यान सुना प्राचीनों से?
क्या न पढ़ा इतिहास सती का
विद्या-निरत नवीनों से?

यदि न सुना तो सुनो कहानी
सती – पद्मिनी – रानी की।
पर झुक झुककर करो वन्दना,
पहले पहल भवानी की॥

रूपवान था रतन, पद्मिनी
रूपवती उसकी रानी।
दम्पति के तन की शोभा से
जगमग जगमग रजधानी॥

रानी की कोमलता पर
कोमलता ही बलिहारी थी।
छुईमुई – सी कुँभला जाती,
वह इतनी सुकुमारी थी॥

राजमहल से छत पर निकली,
हँसती शशि - किरणें आईं।
मलिन न छवि छूने से हो,
इससे विहरीं बन परछाईं॥

मलयानिल पर रहती थी,
वह कुसुम – सुरभि पर सोती थी।
जग की पलकों पर बसकर,
प्राणों से प्राण सँजोती थी॥

ऊषा की स्वर्णिम किरणों
के झूले पर झूला करती।
राजमहल के नंदन - वन में,
बेला सी फूला करती॥

बिखरे केशों में अँधियाली,
मुख पर छायी उजियाली।
राका – अमा – मिलन होता था,
भरी माँग की ले लाली॥

बालों में सिन्दूर चिह्न ही
था दो प्राणों का बंधन।
मानो घनतम तिमिर चीरकर,
हँसी उषा की एक किरन॥

बालमृगी - सी आँखों में
आकर्षण ने डेरा डाला।
सुधा - सिक्त विद्रुम - अधरों पर
मदिरा ने घेरा डाला॥

मधुर गुलाबी गालों पर,
मँडराती फिरती मधुपाली।
एक घूँट पति साथ पिया मधु,
चढ़ी गुलाबी पर लाली॥

आँखों से सरसीरुह ने
सम्मोहन जा जाकर सीखा।
रानी का मधुवर्षी स्वर
कोयल ने गा गाकर सीखा॥

घूँघट – पट हट गया लाज से,
मुसकाई जग मुसकाया।
निःश्वासों की सरस सुरभि से
फूलों में मधुरस आया॥

अरुण कमल ने जिनके तप से
इतनी सी लाली पाई।
फूलों पर चलने से जिनमें
नवनी - सी मृदुता आई॥

फैल रही थी दिग्दिगन्त में
जिनकी नख - छबि मतवाली,
उन पैरों पर सह न सकी
लाक्षारस की कृत्रिम लाली॥

नवल गुलाबों ने हँस हँसकर
सुरभि रूप में भर डाली।
कमल - कोष से उड़ उड़कर
भौंरों ने भी भाँवर डाली॥

जैसी रूपवती रानी थी,
वैसा ही था पति पाया।
मानो वासव साथ शची का
रूप धरातल पर आया॥

भरे यहीं से तंत्र – मंत्र
मनसिज ने अपने बाणों में।
पति के प्राणों में पत्नी थी,
पति पत्नी के प्राणों में॥

दो मुख थे पर एक मधुरध्वनि,
दो मन थे पर एक लगन।
दो उर थे पर एक कल्पना,
एक मगन तो अन्य मगन॥

विरह नाम से ही व्याकुलता,
जीवन भर संयोग रहा।
एक मनोहर सिंहासन पर,
सूर्य - प्रभा का योग रहा॥

रानी कहती नव वसन्त में
कोयल किसको तोल रही।
पति के साथ सदा राका यह
कुहू कुहू क्यों बोल रही?

सावन के रिमझिम में पापी
डाल – डाल पर डोला क्यों?
पी तो मेरे साथ – साथ
‘पी कहाँ’ पपीहा बोला क्यों?

त्रिभुवन के कोने कोने में,
रूप - राशि की ख्याति हुई।
रूपवती के पातिव्रत पर
गर्वित नारी – जाति हुई॥

ग्राम – ग्राम में, नगर – नगर में,
डगर – डगर में, घर - घर में
पति - पत्नी का ही बखान
मुखरित था अवनी - अम्बर में॥

सुनी अलाउद्दीन राहु ने
चन्द्रमुखी की तरुणाई।
उसे विभव का लालच देकर,
की ग्रसने की निठुराई॥

जितने अत्याचार किए
उन सबका क्या वर्णन होगा!
सुनने पर वह करुण कहानी
विकल तुम्हारा मन होगा॥

बोला वह पथिक पुजारी से,
पावन गाथा आरम्भ करो।
चाहे जो हो पर दम्पति का
मेरे अन्तर में त्याग भरो॥

दलबल लेकर खिलजी ने क्या
गढ़ पर ललकार चढ़ाई की?
क्या रावल के नरसिंहों से
रानी के लिए लड़ाई की?

उस संगर का आख्यान कहो,
तुम कहो कहानी रानी की।
समझा समझा इतिहास कहो,
तुम कहो कथा अभिमानी की॥

जप जप माला निर्भय वर्णन
जौहर का करने लगा यती।
आख्यान - सुधा अधिकारी के
अन्तर में भरते लगा यती॥

माधव-निकुंज, काशी
कार्तिकी, संवत १९९६