भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"पी चुके धुआँ कोहरा / पद्माकर शर्मा 'मैथिल'" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पद्माकर शर्मा 'मैथिल' |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 4: | पंक्ति 4: | ||
|अनुवादक= | |अनुवादक= | ||
|संग्रह= | |संग्रह= | ||
− | }} | + | }}{{KKVID|v=uoVyhQjhj_o}} |
{{KKCatGeet}} | {{KKCatGeet}} | ||
<poem> | <poem> |
17:18, 3 सितम्बर 2020 के समय का अवतरण
यदि इस वीडियो के साथ कोई समस्या है तो
कृपया kavitakosh AT gmail.com पर सूचना दें
कृपया kavitakosh AT gmail.com पर सूचना दें
पी चुके धुआँ कोहरा और फिर भी प्यासे हैं
विवशता कि छेनी से हम गए तराशे हैं
दिन झुलस-झुलस जाता, धुएँ की लकीरों से
रात में सितारे सिर धुन रहे फ़क़ीरों से
दूधिया उमर में ये दिन हुए बताशे हैं
विवशता कि छेनी से हम गए तराशे हैं
सुलगते अलावों की आँच कम नहीं होती
घुट घुट रह जाता मन आँख नम नहीं होती
यातनाएँ पर्वत-सी और हम ज़रा से हैं
विवशता कि छेनी से हम गए तराशे हैं
घर में है सफ़ेदी तो मकड़ियों के जालों की
दूर तक क़तारें हैं झुग्गियों की चालों की
साँझ क्या सहेजेगी, भोर के उदासे हैं
विवशता कि छेनी से हम गए तराशे हैं