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"दुनिया के चलन का हो बयां क्या क़िस्सा / रमेश तन्हा" के अवतरणों में अंतर

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दुनिया के चलन का हो बयां क्या किस्सा
कुछ और उलझता गया जितना सुलझा
सूरज ही मफर की न थी हालात से कुछ
शीशे में बाल निकला हर इक रिश्ता।