भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"जी में है कि मैं ग़म का सरापा लिक्खूं / रमेश तन्हा" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश तन्हा |अनुवादक= |संग्रह=तीसर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
10:54, 7 सितम्बर 2020 के समय का अवतरण
जी में है कि मैं ग़म का सरापा लिक्खूं
है अस्ल में ग़म क्या? इसे कैसा लिक्खूं
ये प्यार की है आंच भी जीने का भी कर्ब
तो क्यों न इसे बिना-ए-दुनिया लिक्खूं।