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"अगर बदल न दिया / फ़िराक़ गोरखपुरी" के अवतरणों में अंतर
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अगर बदल न दिया आदमी ने दुनियाँ को, | अगर बदल न दिया आदमी ने दुनियाँ को, | ||
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हर इन्किलाब के बाद आदमी समझता है, | हर इन्किलाब के बाद आदमी समझता है, | ||
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बहुत न बेकसी-ए-इश्क़ पर कोई रोये, | बहुत न बेकसी-ए-इश्क़ पर कोई रोये, | ||
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अगर तलाश करें,क्या नहीं है दुनियाँ में, | अगर तलाश करें,क्या नहीं है दुनियाँ में, | ||
− | + | जुज़ एक ज़िन्दगी कि तरह ज़िन्दगी कि नहीं. | |
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22:19, 25 अक्टूबर 2020 के समय का अवतरण
अगर बदल न दिया आदमी ने दुनियाँ को,
तो जान लो कि यहाँ आदमी कि खैर नहीं.
हर इन्किलाब के बाद आदमी समझता है,
कि इसके बाद न फिर लेगी करवटें ये ज़मीं.
बहुत न बेकसी-ए-इश्क़ पर कोई रोये,
कि हुस्न का भी ज़माने में कोई दोस्त नहीं.
अगर तलाश करें,क्या नहीं है दुनियाँ में,
जुज़ एक ज़िन्दगी कि तरह ज़िन्दगी कि नहीं.