"सृष्टि-बिम्ब / भारतेन्दु प्रताप सिंह" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 11: | पंक्ति 11: | ||
गरज-गरज अम्बर में | गरज-गरज अम्बर में | ||
जब भर नाद, | जब भर नाद, | ||
− | प्रबल | + | प्रबल झंझा हुंकारे, |
घुमड़-घुमड़ बादल चढ़ आयें, | घुमड़-घुमड़ बादल चढ़ आयें, | ||
बिजली-कड़के। | बिजली-कड़के। |
13:15, 29 दिसम्बर 2020 के समय का अवतरण
[झंझावात, मात्र विनाश और विध्वंस का पर्याय बनकर, अपनी सहज प्रकृतिवश बादल-बिजली के संग 'बुद्धि-प्रज्ञा-चेतना' के ज्ञान मार्गी धूनी का विलोम प्रस्तुत करता हुआ, सर्जना-चेतना (जो मनुष्य में अन्तर्गुम्फित ब्रह्माण्ड और पिंड के बीच की एकमात्र कड़ी है) के गतिमानस्वरुप की वैपरीत्य बन, चेतना के अन्तिम विजय-फल के रूप में शिशु (सृष्टि) को यद्यपि की समग्र के पालने में झूलता देखता है, पर शिशु अपने आप में मानव और मानवता का अंकुर बन एक और अनन्त उर्ध्वगामी संभावना का बीज लिए किलकारी मारता है और परम-ब्रह्म से एक कड़ी बनता है - कि हे धरती! यह लो मैं अपना अमृत-पुत्र तुझे देता हूँ]
गरज-गरज अम्बर में
जब भर नाद,
प्रबल झंझा हुंकारे,
घुमड़-घुमड़ बादल चढ़ आयें,
बिजली-कड़के।
धूनी लगाए, परम-चेतना,
दिव्य-दृष्टि से
दस दिशि करती भ्रमण
बींधते महाकाल को॥
परत दर परत, घने-काले बादल घिर
घटाटोप कर, घोर-घोर गर्जन घहराएँ
अंधड़ उठ विकराल,
धूल-धूसरित कर जल-थल
हरहरात हहकार करे नभ अन्दर-बाहर॥
चमक चमक, कर डंक करारी बिजली दौड़े
कोलाहल क्रन्दन के तीखे दंश बनाए।
लांघ कर घटाटोप को, दबाए निज पैरों से
सुनाती लोरी-लय की, हर गर्जन पर
कड़कती बिजली का संचार
करें तेजस्वी उस
शिशु-सृष्टि विम्ब को॥
झुलाता बादल, पलना घुमड़-घुमड़ कर
सजोती परम-चेतना उस नन्हें को
जो अम्बर में ठहर-ठहर
भरता किलकारी
धूनी लगाए - परम चेतना दिव्य-दृष्टि से
दस-दिशी करती भ्रमण
पूजती आह्लादित हो,
इष्ट-देव को महादेव को॥