"बसंती हवा / केदारनाथ अग्रवाल" के अवतरणों में अंतर
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+ | हवा हूँ हवा मैं बसंती हवा हूँ | ||
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+ | हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ | ||
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− | + | जहाँ से चली मैं जहाँ को गई मैं - | |
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− | हवा हूँ, हवा | + | |
− | बसंती हवा | + | |
− | मुझे देखते ही | + | चढ़ी पेड़ महुआ, थपाथप मचाया; |
− | अरहरी लजाई, | + | गिरी धम्म से फिर, चढ़ी आम ऊपर, |
− | मनाया-बनाया, | + | उसे भी झकोरा, किया कान में 'कू', |
− | न मानी, न मानी; | + | उतरकर भगी मैं, हरे खेत पहुँची - |
− | उसे भी न छोड़ा - | + | वहाँ, गेंहुँओं में लहर खूब मारी। |
− | पथिक आ रहा था, | + | |
− | उसी पर ढकेला; | + | पहर दो पहर क्या, अनेकों पहर तक |
− | हँसी ज़ोर से मैं, | + | इसी में रही मैं! |
− | हँसी सब दिशाएँ, | + | खड़ी देख अलसी लिए शीश कलसी, |
− | हँसे लहलहाते | + | मुझे खूब सूझी - |
− | हरे खेत सारे, | + | हिलाया-झुलाया गिरी पर न कलसी! |
− | हँसी चमचमाती | + | इसी हार को पा, |
− | भरी धूप प्यारी; | + | हिलाई न सरसों, झुलाई न सरसों, |
− | बसंती हवा में | + | मज़ा आ गया तब, |
− | हँसी सृष्टि सारी! | + | न सुधबुध रही कुछ, |
− | हवा हूँ, हवा मैं | + | बसंती नवेली भरे गात में थी |
− | बसंती हवा हूँ!< | + | हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ! |
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+ | मुझे देखते ही अरहरी लजाई, | ||
+ | मनाया-बनाया, न मानी, न मानी; | ||
+ | उसे भी न छोड़ा- | ||
+ | पथिक आ रहा था, उसी पर ढकेला; | ||
+ | हँसी ज़ोर से मैं, हँसी सब दिशाएँ, | ||
+ | हँसे लहलहाते हरे खेत सारे, | ||
+ | हँसी चमचमाती भरी धूप प्यारी; | ||
+ | बसंती हवा में हँसी सृष्टि सारी! | ||
+ | हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ! | ||
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18:06, 4 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
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हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ
वही हाँ, वही जो युगों से गगन को
बिना कष्ट-श्रम के सम्हाले हुए है
हवा हूँ हवा मैं बसंती हवा हूँ
वही हाँ, वही जो धरा की बसंती
सुसंगीत मीठा गुंजाती फिरी हूँ
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ
वही हाँ, वही जो सभी प्राणियों को
पिला प्रेम-आसन जिलाए हुई हूँ
हवा हूँ हवा मैं बसंती हवा हूँ
कसम रूप की है, कसम प्रेम की है
कसम इस हृदय की, सुनो बात मेरी--
अनोखी हवा हूँ बड़ी बावली हूँ
बड़ी मस्तमौला। न
हीं कुछ फिकर है,
बड़ी ही निडर हूँ।
जिधर चाहती हूँ,
उधर घूमती हूँ, मुसाफिर अजब हूँ।
न घर-बार मेरा, न उद्देश्य मेरा,
न इच्छा किसी की, न आशा किसी की,
न प्रेमी न दुश्मन,
जिधर चाहती हूँ उधर घूमती हूँ।
हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ!
जहाँ से चली मैं जहाँ को गई मैं -
शहर, गाँव, बस्ती,
नदी, रेत, निर्जन, हरे खेत, पोखर,
झुलाती चली मैं झुमाती चली मैं!
हवा हूँ, हवा मै बसंती हवा हूँ।
चढ़ी पेड़ महुआ, थपाथप मचाया;
गिरी धम्म से फिर, चढ़ी आम ऊपर,
उसे भी झकोरा, किया कान में 'कू',
उतरकर भगी मैं, हरे खेत पहुँची -
वहाँ, गेंहुँओं में लहर खूब मारी।
पहर दो पहर क्या, अनेकों पहर तक
इसी में रही मैं!
खड़ी देख अलसी लिए शीश कलसी,
मुझे खूब सूझी -
हिलाया-झुलाया गिरी पर न कलसी!
इसी हार को पा,
हिलाई न सरसों, झुलाई न सरसों,
मज़ा आ गया तब,
न सुधबुध रही कुछ,
बसंती नवेली भरे गात में थी
हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ!
मुझे देखते ही अरहरी लजाई,
मनाया-बनाया, न मानी, न मानी;
उसे भी न छोड़ा-
पथिक आ रहा था, उसी पर ढकेला;
हँसी ज़ोर से मैं, हँसी सब दिशाएँ,
हँसे लहलहाते हरे खेत सारे,
हँसी चमचमाती भरी धूप प्यारी;
बसंती हवा में हँसी सृष्टि सारी!
हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ!