भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"शहर / अमृता प्रीतम" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKAnooditRachna |रचनाकार=अमृता प्रीतम |संग्रह=चुनी हुई कवितायें / अमृत...)
 
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
<poem>
 
<poem>
 
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है
 
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है
सड़कें - बेतुकी दलीलों सी…
+
सड़कें - बेतुकी दलीलों-सी…
और गलियां इस तरह
+
और गलियाँ इस तरह
 
जैसे एक बात को कोई इधर घसीटता
 
जैसे एक बात को कोई इधर घसीटता
 
कोई उधर
 
कोई उधर
  
हर मकान एक मुट्ठी सा भिंचा हुआ
+
हर मकान एक मुट्ठी-सा भिंचा हुआ
 
दीवारें-किचकिचाती सी
 
दीवारें-किचकिचाती सी
और नालियां, ज्यों मूंह से झाग बहती है
+
और नालियाँ, ज्यों मुँह से झाग बहता है
  
 
यह बहस जाने सूरज से शुरू हुई थी
 
यह बहस जाने सूरज से शुरू हुई थी
 
जो उसे देख कर यह और गरमाती
 
जो उसे देख कर यह और गरमाती
और हर द्वार के मूंह से
+
और हर द्वार के मुँह से
 
फिर साईकिलों और स्कूटरों के पहिये
 
फिर साईकिलों और स्कूटरों के पहिये
 
गालियों की तरह निकलते
 
गालियों की तरह निकलते
और घंटियां हार्न एक दूसरे पर झपटते
+
और घंटियाँ-हार्न एक दूसरे पर झपटते
  
 
जो भी बच्चा इस शहर में जनमता
 
जो भी बच्चा इस शहर में जनमता
पंक्ति 28: पंक्ति 28:
 
बहस से निकलता, बहस में मिलता…
 
बहस से निकलता, बहस में मिलता…
  
शंख घंटों के सांस सूखते
+
शंख घंटों के साँस सूखते
 
रात आती, फिर टपकती और चली जाती
 
रात आती, फिर टपकती और चली जाती
  
पर नींद में भी बहस खतम न होती
+
पर नींद में भी बहस ख़तम न होती
 
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है….
 
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है….
 
</poem>
 
</poem>

18:40, 10 अक्टूबर 2008 का अवतरण

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: अमृता प्रीतम  » संग्रह: चुनी हुई कवितायें
»  शहर

मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है
सड़कें - बेतुकी दलीलों-सी…
और गलियाँ इस तरह
जैसे एक बात को कोई इधर घसीटता
कोई उधर

हर मकान एक मुट्ठी-सा भिंचा हुआ
दीवारें-किचकिचाती सी
और नालियाँ, ज्यों मुँह से झाग बहता है

यह बहस जाने सूरज से शुरू हुई थी
जो उसे देख कर यह और गरमाती
और हर द्वार के मुँह से
फिर साईकिलों और स्कूटरों के पहिये
गालियों की तरह निकलते
और घंटियाँ-हार्न एक दूसरे पर झपटते

जो भी बच्चा इस शहर में जनमता
पूछता कि किस बात पर यह बहस हो रही?
फिर उसका प्रश्न ही एक बहस बनता
बहस से निकलता, बहस में मिलता…

शंख घंटों के साँस सूखते
रात आती, फिर टपकती और चली जाती

पर नींद में भी बहस ख़तम न होती
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है….