"बीजापुर का गोल गुम्बज़ / अशोक शाह" के अवतरणों में अंतर
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| + | अडिग हो गया नृत्यरत स्मृतियों की धार पर | ||
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| + | हृदय की धड़कनें पत्थरों में भर दिया होगा | ||
| + | मुहम्मद आदिल शाह दिल का बहुत खुला होगा | ||
| + | जिसने समय के पूर्व समय को देख लिया होगा | ||
| + | प्यार उसने किया बहुत शिद्दत से होगा | ||
| + | तभी बना गोल गुम्बज़ किस्मत से होगा | ||
| + | रम्भावती कूद जाती है उसी अमिट प्यार में | ||
| + | उसने सबूत तो नहीं माँगा होगा | ||
| + | समय कैद है 144 फीट की गोलाई में | ||
| + | ध्वनि गुंजती, प्रगुणित होती है यहाँ | ||
| + | दिलों के अवगुंठित राज़ खुल जाते हैं | ||
| + | राज़दार वे पल आज भी फुसफुसाते हैं | ||
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| + | पूछो कोई प्रश्न तो उत्तर देता है | ||
| + | बहुत बारिक सरगोशियाँ भी सुन लेता है | ||
| + | जिन्होंने सुनी नहीं कभी अपनी आवाज़ | ||
| + | वे सुन सकते है ख़ुद को पहली बार | ||
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| + | बहरे सुनने, अन्धे आ यहाँ देखने लगते हैं | ||
| + | पत्थर दिल भी धड़कने लगते हैं | ||
| + | रूहानी ईमानदारी से कोई आज भी | ||
| + | उनके कन्धों पर हाथ रखता होगा | ||
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| + | सूरज की रोशनी उनकी कब्रों को धोती सुबह शाम | ||
| + | मनुष्य के शौर्य को थेाड़ा और चमका जाती हैं | ||
| + | काल बुलन्द यहाँ विश्राम कर रहा है | ||
| + | 30 सालों का श्रम गर्व से कह रहा है | ||
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| + | जूनूनी बन्दा उसने खुद से भी प्यार किया होगा | ||
| + | खुदा भी हौसला उसका आफजाइ किया होगा | ||
| + | तभी तो अपनी अंदरुनी ईमानदारी से | ||
| + | पत्थरों में भरा संगीत कालातीत होगा | ||
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| + | गलियारे में घूमते गोल गुम्बज़ के | ||
| + | दिल बाग़-बाग़ हो उठता है | ||
| + | झर जातीं हैं कुण्ठाएँ सारी मन की | ||
| + | दूबों पर ठिठकीं शबनम जिसने देखा होगा | ||
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14:47, 26 जून 2021 के समय का अवतरण
बड़ी शिद्दत के साथ उसने छुआ पत्थरों को होगा
समय की खुरदुरी सतह पर नाच उठा होगा बैसाल्ट
विशाल गुम्बद यह हवा में प्रस्तरित होकर
अडिग हो गया नृत्यरत स्मृतियों की धार पर
कैसे किया होगा हवाओं पर बासाल्टी हस्ताक्षर
हृदय की धड़कनें पत्थरों में भर दिया होगा
मुहम्मद आदिल शाह दिल का बहुत खुला होगा
जिसने समय के पूर्व समय को देख लिया होगा
प्यार उसने किया बहुत शिद्दत से होगा
तभी बना गोल गुम्बज़ किस्मत से होगा
रम्भावती कूद जाती है उसी अमिट प्यार में
उसने सबूत तो नहीं माँगा होगा
समय कैद है 144 फीट की गोलाई में
ध्वनि गुंजती, प्रगुणित होती है यहाँ
दिलों के अवगुंठित राज़ खुल जाते हैं
राज़दार वे पल आज भी फुसफुसाते हैं
पूछो कोई प्रश्न तो उत्तर देता है
बहुत बारिक सरगोशियाँ भी सुन लेता है
जिन्होंने सुनी नहीं कभी अपनी आवाज़
वे सुन सकते है ख़ुद को पहली बार
बहरे सुनने, अन्धे आ यहाँ देखने लगते हैं
पत्थर दिल भी धड़कने लगते हैं
रूहानी ईमानदारी से कोई आज भी
उनके कन्धों पर हाथ रखता होगा
सूरज की रोशनी उनकी कब्रों को धोती सुबह शाम
मनुष्य के शौर्य को थेाड़ा और चमका जाती हैं
काल बुलन्द यहाँ विश्राम कर रहा है
30 सालों का श्रम गर्व से कह रहा है
जूनूनी बन्दा उसने खुद से भी प्यार किया होगा
खुदा भी हौसला उसका आफजाइ किया होगा
तभी तो अपनी अंदरुनी ईमानदारी से
पत्थरों में भरा संगीत कालातीत होगा
गलियारे में घूमते गोल गुम्बज़ के
दिल बाग़-बाग़ हो उठता है
झर जातीं हैं कुण्ठाएँ सारी मन की
दूबों पर ठिठकीं शबनम जिसने देखा होगा
