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स्वाभिमान / निवेदिता चक्रवर्ती

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तिरा बिछड़ना अजब सानिहा बनाया गया
ज़रा सी बात थी पर व
उस
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स्वाभिमान
 
मैंने समूचा ही परोसा था
स्वयं को समाज की थाली में
किंतु मेरे अस्तित्व का कोई टुकड़ा निगल लिया
मेरे स्वाभिमान ने चुपचाप आँखें बचा।
तभी तो पूरी तरह समाप्त न हो सकी
स्पंदित होता है अब भी मेरा हृदय
किसी भी अन्याय के विरुद्ध।
-निवेदिता चक्रवर्ती
 
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