भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"एक पत्थर में कहाँ सम्वेदना बोने लगी / सुरेश कुमार" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुरेश कुमार |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
17:49, 12 दिसम्बर 2021 के समय का अवतरण
एक पत्थर में कहाँ सम्वेदना बोने लगी
मेरे भीतर किसकी भटकी आत्मा रोने लगी
उसको रस्सी पर चलाती थी मेरी एकाग्रता
ध्यान बँटते ही मेरा वो सन्तुलन खोने लगी
उसकी यादों का बसेरा मन के जिस खण्डहर में था
अब वो मन्दिर हो गया और अर्चना होने लगी
चाँदनी उतरे तो उसके पाँव भी मैले न हों
ओस एक-एक फूल की हर पंखड़ी धोने लगी
अन्ततः सब रात के ही पक्ष में जाने लगे
मैं तो मैं, वो चिलचिलाती धूप भी सोने लगी