भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दिन-ब-दिन अब आदमी में शहर बसता जा रहा है ! / रामकुमार कृषक" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामकुमार कृषक |अनुवादक= |संग्रह=स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
(कोई अंतर नहीं)

19:11, 5 जनवरी 2022 का अवतरण

दिन - ब - दिन अब आदमी में
शहर बसता जा रहा है !

पत्थरों के साथ जुड़कर
एक पूरा हादसा
इसके ज़हन में घट चुका है
कोठियाँ उट्ठी हुई हैं
जिस सहन में
यह उसी की
म्यानियों में बँट चुका है,

लार टपकाते बुना जो जाल
कसता जा रहा है !

पीठ पीछे घूम, उड़कर
एक भागम-भाग - कोलाहल
भयँकर जी रहा है
ऊबकर नदियों — कुओं से वर्णसंकर
मुँह गड़ाए सीवरों को
पी रहा है,

मंज़िलों ऊँचा उठाते हाल
धँसता जा रहा है !