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"दिन-ब-दिन अब आदमी में शहर बसता जा रहा है ! / रामकुमार कृषक" के अवतरणों में अंतर
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दिन - ब - दिन अब आदमी में
शहर बसता जा रहा है !
पत्थरों के साथ जुड़कर
एक पूरा हादसा
इसके ज़हन में घट चुका है
कोठियाँ उट्ठी हुई हैं
जिस सहन में
यह उसी की
म्यानियों में बँट चुका है,
लार टपकाते बुना जो जाल
कसता जा रहा है !
पीठ पीछे घूम, उड़कर
एक भागम-भाग - कोलाहल
भयँकर जी रहा है
ऊबकर नदियों — कुओं से वर्णसंकर
मुँह गड़ाए सीवरों को
पी रहा है,
मंज़िलों ऊँचा उठाते हाल
धँसता जा रहा है !