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हक़ अदा करना था ज़िन्दगी का
सो कविता से अलग होना हुआ
अप्रत्याशित,
फिर-फिर मिलने के लिए I
छाती पर लदा हुआ
घुटन और पराजय का बोझ
एक सड़े हुए काठ के कुन्दे की तरह I
उसे उतार फेंकने की जद्दोज़हद
ले गई लोगों तक
जो बोझ ढोते थे जीने की तरह I
वहाँ कविता थी जो ख़ुद
ज़िन्दगी का हक़ अदा कर रही थी I