भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"पटकथा / पृष्ठ 4 / धूमिल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 27: पंक्ति 27:
 
उसमें
 
उसमें
 
सारी चीज़ों को नये सिरे से बदलने की
 
सारी चीज़ों को नये सिरे से बदलने की
बेचैनी थी,रोष था
+
बेचैनी थी, रोष था
 
लेकिन उसका गुस्सा
 
लेकिन उसका गुस्सा
 
एक तथ्यहीन मिश्रण था:
 
एक तथ्यहीन मिश्रण था:
पंक्ति 46: पंक्ति 46:
 
तुम्हें क्या हुआ है?’
 
तुम्हें क्या हुआ है?’
 
‘तुमने पहचाना नहीं-मैं हिंदुस्तान हूँ
 
‘तुमने पहचाना नहीं-मैं हिंदुस्तान हूँ
हाँ -मैं हिंदुस्तान हूँ’,
+
हाँ - मैं हिंदुस्तान हूँ’,
 
वह हँसता है- ऐसी हँसी कि दिल
 
वह हँसता है- ऐसी हँसी कि दिल
 
दहल जाता है
 
दहल जाता है
पंक्ति 74: पंक्ति 74:
 
असंख्य नरकों की घृणा भरी थी
 
असंख्य नरकों की घृणा भरी थी
 
वह एक-एक शब्द चबा-चबाकर
 
वह एक-एक शब्द चबा-चबाकर
बोल रहा था। मगर उसकी आँख
+
बोल रहा था।  
 +
मगर उसकी आँख
 
गुस्से में भी हरी थी
 
गुस्से में भी हरी थी
 
वह कह रहा था-
 
वह कह रहा था-
पंक्ति 116: पंक्ति 117:
 
अब वक़्त आ गया है तुम उठो
 
अब वक़्त आ गया है तुम उठो
 
और अपनी ऊब को आकार दो।
 
और अपनी ऊब को आकार दो।
‘सुनो !
+
‘सुनो!
 
आज मैं तुम्हें वह सत्य बतलाता हूँ
 
आज मैं तुम्हें वह सत्य बतलाता हूँ
 
जिसके आगे हर सचाई
 
जिसके आगे हर सचाई

18:49, 18 फ़रवरी 2022 का अवतरण

देश और धर्म और नैतिकता की
दुहाई देकर
कुछ लोगों की सुविधा
दूसरों की ‘हाय’ पर सेंकते हैं
वे जिसकी पीठ ठोंकते हैं
उसकी रीढ़ की हड्डी गायब हो जाती है
वे मुस्कराते हैं और
दूसरे की आँख में झपटती हुई प्रतिहिंसा
करवट बदलकर सो जाती है
मैं देखता रहा…
देखता रहा…
हर तरफ ऊब थी
संशय था
नफ़रत थी
मगर हर आदमी अपनी ज़रूरतों के आगे
असहाय था।
उसमें
सारी चीज़ों को नये सिरे से बदलने की
बेचैनी थी, रोष था
लेकिन उसका गुस्सा
एक तथ्यहीन मिश्रण था:
आग और आँसू और हाय का।
इस तरह एक दिन-
जब मैं घूमते-घूमते थक चुका था
मेरे खून में एक काली आँधी-
दौड़ लगा रही थी
मेरी असफ़लताओं में सोये हुये
वहसी इरादों को
झकझोर कर जगा रही थी
अचानक, नींद की असंख्य पर्तों में
डूबते हुये मैंने देखा
मेरी उलझनों के अँधेरे में
एक हमशक्ल खड़ा है
मैंने उससे पूछा- 'तुम कौन हो?
यहाँ क्यों आये हो?
तुम्हें क्या हुआ है?’
‘तुमने पहचाना नहीं-मैं हिंदुस्तान हूँ
हाँ - मैं हिंदुस्तान हूँ’,
वह हँसता है- ऐसी हँसी कि दिल
दहल जाता है
कलेजा मुँह को आता है
और मैं हैरान हूँ
‘यहाँ आओ
मेरे पास आओ
मुझे छुओ।
मुझे जियो।
मेरे साथ चलो
मेरा यकीन करो।
इस दलदल से
बाहर निकलो!
सुनो!
तुम चाहे जिसे चुनो
मगर इसे नहीं।
इसे बदलो।
मुझे लगा- आवाज़
जैसे किसी जलते हुये कुएँ से
आ रही है।
एक अजीब-सी प्यार भरी गुर्राहट
जैसे कोई मादा भेड़िया
अपने छौने को दूध पिला रही है
साथ ही किसी छौने का सिर चबा रही है
मेरा सारा जिस्म थरथरा रहा था
उसकी आवाज में
असंख्य नरकों की घृणा भरी थी
वह एक-एक शब्द चबा-चबाकर
बोल रहा था।
मगर उसकी आँख
गुस्से में भी हरी थी
वह कह रहा था-
‘तुम्हारी आँखों के चकनाचूर आईनों में
वक्त की बदरंग छायाएँ उलटी कर रही हैं
और तुम पेड़ों की छाल गिनकर
भविष्य का कार्यक्रम तैयार कर रहे हो
तुम एक ऐसी जिन्दगी से गुज़र रहे हो
जिसमें न कोई तुक है
न सुख है
तुम अपनी शापित परछाई से टकराकर
रास्ते में रुक गये हो
तुम जो हर चीज़
अपने दाँतों के नीचे
खाने के आदी हो
चाहे वह सपना अथवा आज़ादी हो
अचानक, इस तरह, क्यों चुक गये हो
वह क्या है जिसने तुम्हें
बर्बरों के सामने अदब से
रहना सिखलाया है?
क्या यह विश्वास की कमी है
जो तुम्हारी भलमनसाहत बन गयी है
या कि शर्म
अब तुम्हारी सहूलियत बन गयी है
नहीं- सरलता की तरह इस तरह
मत दौड़ो
उसमें भूख और मन्दिर की रोशनी का
रिश्ता है। वह बनिये की पूँजी का
आधार है
मैं बार-बार कहता हूँ कि इस उलझी हुई
दुनिया में
आसानी से समझ में आने वाली चीज़
सिर्फ दीवार है।
और यह दीवार अब तुम्हारी आदत का
हिस्सा बन गयी है
इसे झटककर अलग करो
अपनी आदतों में
फूलों की जगह पत्थर भरो
मासूमियत के हर तकाज़े को
ठोकर मार दो
अब वक़्त आ गया है तुम उठो
और अपनी ऊब को आकार दो।
‘सुनो!
आज मैं तुम्हें वह सत्य बतलाता हूँ
जिसके आगे हर सचाई
छोटी है।
इस दुनिया में
भूखे आदमी का सबसे बड़ा तर्क
रोटी है।
मगर तुम्हारी भूख और भाषा में
यदि सही दूरी नहीं है
तो तुम अपने-आपको आदमी मत कहो
क्योंकि पशुता -
सिर्फ पूँछ होने की मज़बूरी नहीं है
वह आदमी को वहीं ले जाती है
जहाँ भूख
सबसे पहले भाषा को खाती है
वक़्त सिर्फ उसका चेहरा बिगाड़ता है
जो अपने चेहरे की राख
दूसरों की रूमाल से झाड़ता है
जो अपना हाथ
मैला होने से डरता है
वह एक नहीं ग्यारह कायरों की
मौत मरता है