भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"पटकथा / पृष्ठ 4 / धूमिल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धूमिल }} देश और धर्म और नैतिकता की<br> दुहाई देकर<br> कुछ लो...)
 
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=धूमिल
 
|रचनाकार=धूमिल
 
}}  
 
}}  
 
+
{{KKPageNavigation
देश और धर्म और नैतिकता की<br>
+
|पीछे=पटकथा / पृष्ठ 3 / धूमिल
दुहाई देकर<br>
+
|आगे=पटकथा / पृष्ठ 5 / धूमिल
कुछ लोगों की सुविधा<br>
+
|सारणी=पटकथा / धूमिल
दूसरों की ‘हाय’पर सेंकते हैं<br>
+
}}
वे जिसकी पीठ ठोंकते हैं<br>
+
<poem>
उसकी रीढ़ की हड्डी गायब हो जाती है<br>
+
देश और धर्म और नैतिकता की
वे मुस्कराते हैं और<br>
+
दुहाई देकर
दूसरे की आँख में झपटती हुई प्रतिहिंसा<br>
+
कुछ लोगों की सुविधा
करवट बदलकर सो जाती है<br>
+
दूसरों की ‘हाय’ पर सेंकते हैं
मैं देखता रहा…<br>
+
वे जिसकी पीठ ठोंकते हैं
देखता रहा…<br>
+
उसकी रीढ़ की हड्डी गायब हो जाती है
हर तरफ ऊब थी<br>
+
वे मुस्कराते हैं और
संशय था<br>
+
दूसरे की आँख में झपटती हुई प्रतिहिंसा
नफरत थी<br>
+
करवट बदलकर सो जाती है
मगर हर आदमी अपनी ज़रूरतों के आगे<br>
+
मैं देखता रहा…
असहाय था। उसमें<br>
+
देखता रहा…
सारी चीज़ों को नये सिरे से बदलने की<br>
+
हर तरफ ऊब थी
बेचैनी थी ,रोष था<br>
+
संशय था
लेकिन उसका गुस्सा<br>
+
नफ़रत थी
एक तथ्यहीन मिश्रण था:<br>
+
मगर हर आदमी अपनी ज़रूरतों के आगे
आग और आँसू और हाय का।<br>
+
असहाय था।  
इस तरह एक दिन-<br>
+
उसमें
जब मैं घूमते-घूमते थक चुका था<br>
+
सारी चीज़ों को नये सिरे से बदलने की
मेरे खून में एक काली आँधी-<br>
+
बेचैनी थी, रोष था
दौड़ लगा रही थी<br>
+
लेकिन उसका गुस्सा
मेरी असफलताओं में सोये हुये<br>
+
एक तथ्यहीन मिश्रण था:
वहसी इरादों को<br>
+
आग और आँसू और हाय का।
झकझोरकर जगा रही थी<br>
+
इस तरह एक दिन-
अचानक ,नींद की असंख्य पर्तों में<br>
+
जब मैं घूमते-घूमते थक चुका था
डूबते हुये मैंने देखा<br>
+
मेरे खून में एक काली आँधी-
मेरी उलझनों के अँधेरे में<br>
+
दौड़ लगा रही थी
एक हमशक्ल खड़ा है<br>
+
मेरी असफ़लताओं में सोये हुये
मैंने उससे पूछा-’तुम कौन हो?<br>
+
वहसी इरादों को
यहाँ क्यों आये हो?<br>
+
झकझोर कर जगा रही थी
तुम्हें क्या हुआ है?’<br>
+
अचानक, नींद की असंख्य पर्तों में
‘तुमने पहचाना नहीं-मैं हिंदुस्तान हूँ<br>
+
डूबते हुये मैंने देखा
हाँ -मैं हिंदुस्तान हूँ’,<br>
+
मेरी उलझनों के अँधेरे में
वह हँसता है-ऐसी हँसी कि दिल<br>
+
एक हमशक्ल खड़ा है
दहल जाता है<br>
+
मैंने उससे पूछा- 'तुम कौन हो?
कलेजा मुँह को आता है<br>
+
यहाँ क्यों आये हो?
और मैं हैरान हूँ<br>
+
तुम्हें क्या हुआ है?’
‘यहाँ आओ<br>
+
‘तुमने पहचाना नहीं-मैं हिंदुस्तान हूँ
मेरे पास आओ<br>
+
हाँ - मैं हिंदुस्तान हूँ’,
मुझे छुओ।<br>
+
वह हँसता है- ऐसी हँसी कि दिल
मुझे जियो। मेरे साथ चलो<br>
+
दहल जाता है
मेरा यकीन करो। इस दलदल से<br>
+
कलेजा मुँह को आता है
बाहर निकलो!<br>
+
और मैं हैरान हूँ
सुनो!<br>
+
‘यहाँ आओ
तुम चाहे जिसे चुनो<br>
+
मेरे पास आओ
मगर इसे नहीं। इसे बदलो।<br>
+
मुझे छुओ।
मुझे लगा-आवाज़<br>
+
मुझे जियो।  
जैसे किसी जलते हुये कुएँ से<br>
+
मेरे साथ चलो
आ रही है।<br>
+
मेरा यकीन करो।  
एक अजीब-सी प्यार भरी गुर्राहट<br>
+
इस दलदल से
जैसे कोई मादा भेड़िया<br>
+
बाहर निकलो!
अपने छौने को दूध पिला रही है<br>
+
सुनो!
साथ ही किसी छौने का सिर चबा रही है<br>
+
तुम चाहे जिसे चुनो
मेरा सारा जिस्म थरथरा रहा था<br>
+
मगर इसे नहीं।  
उसकी आवाज में<br>
+
इसे बदलो।
असंख्य नरकों की घृणा भरी थी<br>
+
मुझे लगा- आवाज़
वह एक-एक शब्द चबा-चबाकर<br>
+
जैसे किसी जलते हुये कुएँ से
बोल रहा था। मगर उसकी आँख<br>
+
आ रही है।
गुस्से में भी हरी थी<br>
+
एक अजीब-सी प्यार भरी गुर्राहट
वह कह रहा था-<br>
+
जैसे कोई मादा भेड़िया
‘तुम्हारी आँखों के चकनाचूर आईनों में<br>
+
अपने छौने को दूध पिला रही है
वक्त की बदरंग छायाएँ उलटी कर रही हैं<br>
+
साथ ही किसी छौने का सिर चबा रही है
और तुम पेड़ों की छाल गिनकर<br>
+
मेरा सारा जिस्म थरथरा रहा था
भविष्य का कार्यक्रम तैयार कर रहे हो<br>
+
उसकी आवाज में
तुम एक ऐसी जिन्दगी से गुज़र रहे हो<br>
+
असंख्य नरकों की घृणा भरी थी
जिसमें न कोई तुक है<br>
+
वह एक-एक शब्द चबा-चबाकर
न सुख है<br>
+
बोल रहा था।  
तुम अपनी शापित परछाई से टकराकर<br>
+
मगर उसकी आँख
रास्ते में रुक गये हो<br>
+
गुस्से में भी हरी थी
तुम जो हर चीज़<br>
+
वह कह रहा था-
अपने दाँतों के नीचे<br>
+
‘तुम्हारी आँखों के चकनाचूर आईनों में
खाने के आदी हो<br>
+
वक्त की बदरंग छायाएँ उलटी कर रही हैं
चाहे वह सपना अथवा आज़ादी हो<br>
+
और तुम पेड़ों की छाल गिनकर
अचानक ,इस तरह,क्यों चुक गये हो<br>
+
भविष्य का कार्यक्रम तैयार कर रहे हो
वह क्या है जिसने तुम्हें<br>
+
तुम एक ऐसी जिन्दगी से गुज़र रहे हो
बर्बरों के सामने अदब से<br>
+
जिसमें न कोई तुक है
रहना सिखलाया है?<br>
+
न सुख है
क्या यह विश्वास की कमी है<br>
+
तुम अपनी शापित परछाई से टकराकर
जो तुम्हारी भलमनसाहत बन गयी है<br>
+
रास्ते में रुक गये हो
या कि शर्म<br>
+
तुम जो हर चीज़
अब तुम्हारी सहूलियत बन गयी है<br>
+
अपने दाँतों के नीचे
नहीं-सरलता की तरह इस तरह<br>
+
खाने के आदी हो
मत दौड़ो<br>
+
चाहे वह सपना अथवा आज़ादी हो
उसमें भूख और मन्दिर की रोशनी का<br>
+
अचानक, इस तरह, क्यों चुक गये हो
रिश्ता है। वह बनिये की पूँजी का<br>
+
वह क्या है जिसने तुम्हें
आधार है<br>
+
बर्बरों के सामने अदब से
मैं बार-बार कहता हूँ कि इस उलझी हुई<br>
+
रहना सिखलाया है?
दुनिया में<br>
+
क्या यह विश्वास की कमी है
आसानी से समझ में आने वाली चीज़<br>
+
जो तुम्हारी भलमनसाहत बन गयी है
सिर्फ दीवार है।<br>
+
या कि शर्म
और यह दीवार अब तुम्हारी आदत का<br>
+
अब तुम्हारी सहूलियत बन गयी है
हिस्सा बन गयी है<br>
+
नहीं- सरलता की तरह इस तरह
इसे झटककर अलग करो<br>
+
मत दौड़ो
अपनी आदतों में<br>
+
उसमें भूख और मन्दिर की रोशनी का
फूलों की जगह पत्थर भरो<br>
+
रिश्ता है। वह बनिये की पूँजी का
मासूमियत के हर तकाज़े को<br>
+
आधार है
ठोकर मार दो<br>
+
मैं बार-बार कहता हूँ कि इस उलझी हुई
अब वक्त आ गया है तुम उठो<br>
+
दुनिया में
और अपनी ऊब को आकार दो।<br>
+
आसानी से समझ में आने वाली चीज़
‘सुनो !<br>
+
सिर्फ दीवार है।
आज मैं तुम्हें वह सत्य बतलाता हूँ<br>
+
और यह दीवार अब तुम्हारी आदत का
जिसके आगे हर सचाई<br>
+
हिस्सा बन गयी है
छोटी है। इस दुनिया में<br>
+
इसे झटककर अलग करो
भूखे आदमी का सबसे बड़ा तर्क<br>
+
अपनी आदतों में
रोटी है।<br>
+
फूलों की जगह पत्थर भरो
मगर तुम्हारी भूख और भाषा में<br>
+
मासूमियत के हर तकाज़े को
यदि सही दूरी नहीं है<br>
+
ठोकर मार दो
तो तुम अपने-आपको आदमी मत कहो<br>
+
अब वक़्त आ गया है तुम उठो
क्योंकि पशुता -<br>
+
और अपनी ऊब को आकार दो।
सिर्फ पूँछ होने की मज़बूरी नहीं है<br>
+
‘सुनो!
वह आदमी को वहीं ले जाती है<br>
+
आज मैं तुम्हें वह सत्य बतलाता हूँ
जहाँ भूख<br>
+
जिसके आगे हर सचाई
सबसे पहले भाषा को खाती है<br>
+
छोटी है।  
वक्त सिर्फ उसका चेहरा बिगाड़ता है<br>
+
इस दुनिया में
जो अपने चेहरे की राख<br>
+
भूखे आदमी का सबसे बड़ा तर्क
दूसरों की रूमाल से झाड़ता है<br>
+
रोटी है।
जो अपना हाथ<br>
+
मगर तुम्हारी भूख और भाषा में
मैला होने से डरता है<br>
+
यदि सही दूरी नहीं है
वह एक नहीं ग्यारह कायरों की<br>
+
तो तुम अपने-आपको आदमी मत कहो
 +
क्योंकि पशुता -
 +
सिर्फ पूँछ होने की मज़बूरी नहीं है
 +
वह आदमी को वहीं ले जाती है
 +
जहाँ भूख
 +
सबसे पहले भाषा को खाती है
 +
वक़्त सिर्फ उसका चेहरा बिगाड़ता है
 +
जो अपने चेहरे की राख
 +
दूसरों की रूमाल से झाड़ता है
 +
जो अपना हाथ
 +
मैला होने से डरता है
 +
वह एक नहीं ग्यारह कायरों की
 
मौत मरता है
 
मौत मरता है
 +
</poem>

18:49, 18 फ़रवरी 2022 का अवतरण

देश और धर्म और नैतिकता की
दुहाई देकर
कुछ लोगों की सुविधा
दूसरों की ‘हाय’ पर सेंकते हैं
वे जिसकी पीठ ठोंकते हैं
उसकी रीढ़ की हड्डी गायब हो जाती है
वे मुस्कराते हैं और
दूसरे की आँख में झपटती हुई प्रतिहिंसा
करवट बदलकर सो जाती है
मैं देखता रहा…
देखता रहा…
हर तरफ ऊब थी
संशय था
नफ़रत थी
मगर हर आदमी अपनी ज़रूरतों के आगे
असहाय था।
उसमें
सारी चीज़ों को नये सिरे से बदलने की
बेचैनी थी, रोष था
लेकिन उसका गुस्सा
एक तथ्यहीन मिश्रण था:
आग और आँसू और हाय का।
इस तरह एक दिन-
जब मैं घूमते-घूमते थक चुका था
मेरे खून में एक काली आँधी-
दौड़ लगा रही थी
मेरी असफ़लताओं में सोये हुये
वहसी इरादों को
झकझोर कर जगा रही थी
अचानक, नींद की असंख्य पर्तों में
डूबते हुये मैंने देखा
मेरी उलझनों के अँधेरे में
एक हमशक्ल खड़ा है
मैंने उससे पूछा- 'तुम कौन हो?
यहाँ क्यों आये हो?
तुम्हें क्या हुआ है?’
‘तुमने पहचाना नहीं-मैं हिंदुस्तान हूँ
हाँ - मैं हिंदुस्तान हूँ’,
वह हँसता है- ऐसी हँसी कि दिल
दहल जाता है
कलेजा मुँह को आता है
और मैं हैरान हूँ
‘यहाँ आओ
मेरे पास आओ
मुझे छुओ।
मुझे जियो।
मेरे साथ चलो
मेरा यकीन करो।
इस दलदल से
बाहर निकलो!
सुनो!
तुम चाहे जिसे चुनो
मगर इसे नहीं।
इसे बदलो।
मुझे लगा- आवाज़
जैसे किसी जलते हुये कुएँ से
आ रही है।
एक अजीब-सी प्यार भरी गुर्राहट
जैसे कोई मादा भेड़िया
अपने छौने को दूध पिला रही है
साथ ही किसी छौने का सिर चबा रही है
मेरा सारा जिस्म थरथरा रहा था
उसकी आवाज में
असंख्य नरकों की घृणा भरी थी
वह एक-एक शब्द चबा-चबाकर
बोल रहा था।
मगर उसकी आँख
गुस्से में भी हरी थी
वह कह रहा था-
‘तुम्हारी आँखों के चकनाचूर आईनों में
वक्त की बदरंग छायाएँ उलटी कर रही हैं
और तुम पेड़ों की छाल गिनकर
भविष्य का कार्यक्रम तैयार कर रहे हो
तुम एक ऐसी जिन्दगी से गुज़र रहे हो
जिसमें न कोई तुक है
न सुख है
तुम अपनी शापित परछाई से टकराकर
रास्ते में रुक गये हो
तुम जो हर चीज़
अपने दाँतों के नीचे
खाने के आदी हो
चाहे वह सपना अथवा आज़ादी हो
अचानक, इस तरह, क्यों चुक गये हो
वह क्या है जिसने तुम्हें
बर्बरों के सामने अदब से
रहना सिखलाया है?
क्या यह विश्वास की कमी है
जो तुम्हारी भलमनसाहत बन गयी है
या कि शर्म
अब तुम्हारी सहूलियत बन गयी है
नहीं- सरलता की तरह इस तरह
मत दौड़ो
उसमें भूख और मन्दिर की रोशनी का
रिश्ता है। वह बनिये की पूँजी का
आधार है
मैं बार-बार कहता हूँ कि इस उलझी हुई
दुनिया में
आसानी से समझ में आने वाली चीज़
सिर्फ दीवार है।
और यह दीवार अब तुम्हारी आदत का
हिस्सा बन गयी है
इसे झटककर अलग करो
अपनी आदतों में
फूलों की जगह पत्थर भरो
मासूमियत के हर तकाज़े को
ठोकर मार दो
अब वक़्त आ गया है तुम उठो
और अपनी ऊब को आकार दो।
‘सुनो!
आज मैं तुम्हें वह सत्य बतलाता हूँ
जिसके आगे हर सचाई
छोटी है।
इस दुनिया में
भूखे आदमी का सबसे बड़ा तर्क
रोटी है।
मगर तुम्हारी भूख और भाषा में
यदि सही दूरी नहीं है
तो तुम अपने-आपको आदमी मत कहो
क्योंकि पशुता -
सिर्फ पूँछ होने की मज़बूरी नहीं है
वह आदमी को वहीं ले जाती है
जहाँ भूख
सबसे पहले भाषा को खाती है
वक़्त सिर्फ उसका चेहरा बिगाड़ता है
जो अपने चेहरे की राख
दूसरों की रूमाल से झाड़ता है
जो अपना हाथ
मैला होने से डरता है
वह एक नहीं ग्यारह कायरों की
मौत मरता है