"कितनी देर से आती हो / शेखर सिंह मंगलम" के अवतरणों में अंतर
Sharda suman (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शेखर सिंह मंगलम |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
14:55, 30 अप्रैल 2022 के समय का अवतरण
कितनी देर से आती हो
थक कर पसीने में लथपत
सुबह तड़के उठ चली जाती हो
दौड़ते हुए साहब के घर
उनकी बेटी को नहलाने, खिलाने, दुलराने
क्यों उसका इतना ख़्याल रखती हो माँ?
क्या तुम नौकरी करती वहाँ
हमे अपनी आँखों का तारा कहती
हम भी तो ही बच्चे हैं
क्यों छोड़ चली जाती हो
बर्तन माँजने, झाडू पोछा करने
दूसरों का खाना बनाने माँ
हम यहीं घर में रात वाली
बासी रोटी खाते हैं
तुम कभी समय से कहाँ आती हो
क्या साहब के बच्चे
हमसे अच्छे हैं माँ?
पापा कहाँ हैं माँ
वो क्यों नहीं आते
क्यों उनकी तस्वीर को देख फफक पड़ती हो
क्या वो कभी नहीं आयेंगे
तुम्हें अकेले ही सारी
जिम्मेदारियाँ पूरी करनी पड़ेंगी माँ?
तुम रोया न करो
हम बड़े हो रहे, समझते हैं सब
हमारा पेट पालने के लिए सालती हो
जांगर अपना मगर
मुझे ईर्ष्या होती है जब तुम
साहब के बच्चे को गोद में ले
दुलराती हो, लोरी सुना सुलाती हो और
हम तुम्हारा लाड पाने को
टुकुर-टुकुर मुँह ताकते रहते हैं माँ
बस माँ, अब नहीं
तुम साहब की नौकरी छोड़ दो
बगल वाले भैया के दुकान पर
मैं नौकरी कर लेता हूँ
तुम चली जाती हो
गुड़िया भी रोती है माँ
तुम इसे ही संभाला करो
हम बड़ा इंसान बनाएंगे इसे
साहब की गुड़िया से कितनी अच्छी है
हमारी गुड़िया
है ना माँ?
बोलो
माँ...
शीर्षकः अपवाद।।
स्त्री सबसे अधिक-
अपने बच्चे को प्रेम करती है
यह प्रेम, प्रेम को परिभाषित करता है,
शेष प्रेम स्वार्थ-बाँध से
गाहे-बेगाहे रसकर बाहर आता है किंतु
बाहर आने के उपरांत भी
प्रेम को परिभाषित नहीं कर सकता क्योंकि
‘अपवाद’ शब्द (पुल्लिंग) है जो
कदापि किसी भी युग में माँ नहीं बन सकता।