भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कविता की ओर / वेणु गोपाल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वेणु गोपाल |संग्रह=चट्टानों का जलगीत / वेणु गोप...)
 
 
पंक्ति 26: पंक्ति 26:
  
 
रात दोपहर में विलय हो रही है
 
रात दोपहर में विलय हो रही है
ज़िस्म
+
जिस्म
 
हमारे भीतर
 
हमारे भीतर
 
सुबह की लाली हो रहे हैं।
 
सुबह की लाली हो रहे हैं।

20:50, 5 नवम्बर 2008 के समय का अवतरण

कविता इन्तज़ार कर रही है

हमारी वाटर-बोतल में
बावड़ी के मीठे, ताज़े, साफ़ पानी-सा
वक़्त है। जिसे

हम उस पहाड़ से मांग कर लाए हैं
जो
हमारी
इकलौती तट-शोभा है।

हम
वाटर-बोतल से एक घूँट भरते हैं
और
अपने-अपने जिस्मों को
एक-दूसरे की आँखों से देखते हैं।
फुसफुसाते हैं-- 'कविता
इन्तज़ार कर सकती है।'

रात दोपहर में विलय हो रही है
जिस्म
हमारे भीतर
सुबह की लाली हो रहे हैं।

हम
तेज़-तेज़ चलने लगते हैं
उस ओर

जिस ओर
कविता हमारा इंतज़ार कर रही है।

रचनाकाल : 20 मई 1975