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"बर्लिन की दीवार / 29 / हरबिन्दर सिंह गिल" के अवतरणों में अंतर
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पत्थर निर्जीव नहीं हैं
ये महसूस भी करते हैं।
यदि ऐसा न होता
पर्वतों की चाटियाँ
शरद् ऋतु में अपने ऊपर
चांदी-सी सफेद चादर
न ओढ़ लिया करतीं और
ग्रीष्म के आगमन के साथ
बर्फ को सूरज की गरमी से नहलाकर
उसे निर्मल जल बना
नदियों को निरंतर
बहाव का रूप न देतीं।
यदि पत्थरों से बनी
ये पर्वत की चोटियाँ
बहती हवाओं के रूख को
महसूस न कर पातीं,
तो धरती बरसात के अभाव में
एक रेगिस्तान बन कर रह जाती।
तभी तो बर्लिन दीवार के
ये ढ़हते टुकड़े पत्थरों के
महसूस करा देना चाहते हैं मानव को
कि शासन चाहे जनता का हो
या हो राज करता कोई राजा,
उसे उतना ही महान होना चाहिए
जितनी हैं, ये पर्वतों की चोटियाँ।