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"मुक्ति की तलाश / अलेक्सान्दर ब्लोक / वरयाम सिंह" के अवतरणों में अंतर

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मुक्ति की तलाश है मुझे।
 
मुक्ति की तलाश है मुझे।
पर्वत शिखरों पर जल रहे हैं मेरे अग्निकुंड
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पर्वत शिखरों पर जल रहे हैं मेरे अग्निकुण्ड
आलोकित हुआ है पूरा रात्रि-प्रदेश।
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आलोकित हुआ है पूरा रात्रि-प्रदेश ।
सबसे अधिक चमक है मेरी अंतस् दृष्टि की
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सबसे अधिक चमक है मेरी अन्तस् दृष्टि की
 
और तुम हो दूर... पर हो भी क्‍या तुम ?
 
और तुम हो दूर... पर हो भी क्‍या तुम ?
मुक्ति की तलाश है मुझे।
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मुक्ति की तलाश है मुझे ।
  
गूँज रहा है आकाश में तारों का समूहगान।
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गूँज रहा है आकाश में तारों का समूहगान ।
अभिशाप दे रही हैं मानव पीढ़ियाँ।
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अभिशाप दे रही हैं मानव पीढ़ियाँ ।
 
तुम्‍हारे लिए शिखरों पर
 
तुम्‍हारे लिए शिखरों पर
जला रखे हैं, मैंने अग्निकुंड।
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जला रखे हैं, मैंने अग्निकुण्ड।
पर तुम हो प्रपंच।
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पर तुम हो प्रपंच ।
मुक्ति की तलाश है मुझे।
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मुक्ति की तलाश है मुझे ।
  
 
गाते-गाते थक गए हैं तारे।
 
गाते-गाते थक गए हैं तारे।
चली जा रही है रात।
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चली जा रही है रात ।
लौटने लगी हैं शंकाएँ
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लौटने लगी हैं शँकाएँ
उन उज्‍ज्‍वल शिखरों से उतर रही हो तुम।
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उन उज्‍ज्‍वल शिखरों से उतर रही हो तुम ।
खड़ा हूँ मैं यहाँ तुम्‍हारी प्रतीक्षा में।
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खड़ा हूँ मैं यहाँ तुम्‍हारी प्रतीक्षा में ।
तुम्‍हारी और फैला दिया है मैंने अपना हृदय।
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तुम्‍हारी और फैला दिया है मैंने अपना हृदय ।
तुम्हीं में है मेरी मुक्ति!
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तुम्हीं में है मेरी मुक्ति !
 
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01:22, 23 जून 2022 के समय का अवतरण

मुक्ति की तलाश है मुझे।
पर्वत शिखरों पर जल रहे हैं मेरे अग्निकुण्ड
आलोकित हुआ है पूरा रात्रि-प्रदेश ।
सबसे अधिक चमक है मेरी अन्तस् दृष्टि की
और तुम हो दूर... पर हो भी क्‍या तुम ?
मुक्ति की तलाश है मुझे ।

गूँज रहा है आकाश में तारों का समूहगान ।
अभिशाप दे रही हैं मानव पीढ़ियाँ ।
तुम्‍हारे लिए शिखरों पर
जला रखे हैं, मैंने अग्निकुण्ड।
पर तुम हो प्रपंच ।
मुक्ति की तलाश है मुझे ।

गाते-गाते थक गए हैं तारे।
चली जा रही है रात ।
लौटने लगी हैं शँकाएँ
उन उज्‍ज्‍वल शिखरों से उतर रही हो तुम ।
खड़ा हूँ मैं यहाँ तुम्‍हारी प्रतीक्षा में ।
तुम्‍हारी और फैला दिया है मैंने अपना हृदय ।
तुम्हीं में है मेरी मुक्ति !