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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=विनीत मोहन औदिच्य|संग्रह= }}{{KKCatGhazal‎}}‎<poem>'''1'''
बढ़ते ही जा रहे हैं आजार जिंदगी के
लगते नहीं है अच्छे आसार जिंदगी के
उधड़े हुए हैं रिश्ते कितना रफू करूँ मैं
चुभते हैं 'फिक्र' अब तो गमख्वार जिंदगी के।।
'''2'''
नुमाइश में जहां लाया गया हूँ
बरंगे ऊद बिखराया गया हूँ
विनीत मोहन _फ़िक्र सागरी
'''3'''
मुहब्बत में ये मोजिजा हो गया
भरा जख्म फिर से हरा हो गया