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"सब कुछ को लुटा देने का सुख / देवी प्रसाद मिश्र" के अवतरणों में अंतर

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मैं एक ज़रूरतमन्द की तरह उससे मिलता
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मैं घर से निकला तो मैंने सोचा कि मैंने
अमूमन वह किसी रेस्तराँ में मिलने के लिए
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गीज़र तो ऑन नहीं छोड़ दिया है
कहता जगह के चुनाव को लेकर मैं घबराता
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लेकिन मैं हाँ भी कर देता मिलते ही वह
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और कहीं गैस तो नहीं खुली है
कहता कि मुझे तो भूख लगी है । आपको ?
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वह चाहता था कि मैं कहूँ कि मुझे तो नहीं
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और अगर नल खुला रह गया होगा…तो.
लगी है । लेकिन पैदल, बस, मेट्रो में हलकान
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होने के बावजूद मैं स्याह चेहरे और सूखते
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और अगर हीटर चला रह गया होगा…तो.
होंठों से उससे यह कहता था कि मुझे भूख
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नहीं लगती । इससे वह जितना आश्वस्त होता,
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मेरी ग़ैरमौजूदगी में पता नहीं क्या होगा
शर्मिन्दा भी उतना ही ।  
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हो सकता है कि घर राख मिले या पानी में
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डूबा
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हो यह भी सकता है कि क्रान्ति हो जाए और
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जब मैं अटैची के साथ घर पहुँचूँ तो पता लगे
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मेरे घर में एक आदिवासी रह रहा है ।
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मैं दरवाज़ा खटखटाऊँ – वह दरवाज़ा खोलकर
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दहलीज़ पर खड़ा हो जाए और मैं उसे देखकर
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विस्मित होता रहूँ ।
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और मुझमें सब कुछ को लुटा देने का सुख
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दिखे उसे
 
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23:57, 5 सितम्बर 2022 के समय का अवतरण

मैं घर से निकला तो मैंने सोचा कि मैंने
गीज़र तो ऑन नहीं छोड़ दिया है ।

और कहीं गैस तो नहीं खुली है ।

और अगर नल खुला रह गया होगा…तो.

और अगर हीटर चला रह गया होगा…तो.

मेरी ग़ैरमौजूदगी में पता नहीं क्या होगा ।

हो सकता है कि घर राख मिले या पानी में
डूबा ।

हो यह भी सकता है कि क्रान्ति हो जाए और
जब मैं अटैची के साथ घर पहुँचूँ तो पता लगे
मेरे घर में एक आदिवासी रह रहा है ।

मैं दरवाज़ा खटखटाऊँ – वह दरवाज़ा खोलकर
दहलीज़ पर खड़ा हो जाए और मैं उसे देखकर
विस्मित होता रहूँ ।

और मुझमें सब कुछ को लुटा देने का सुख
दिखे उसे ।