भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"यह अकेलापन / रश्मि विभा त्रिपाठी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= रश्मि विभा त्रिपाठी |संग्रह= }} Categ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
21:29, 11 नवम्बर 2022 के समय का अवतरण
कभी तो आओ
मनमीत यों तुम
मुझपे छाओ
जैसे कि छा जाता है
धरती पर
प्रेमासक्त गगन
बाहों में भर
उसका तपा तन
हो बेसबर
सीने में छिपाता है
सारा का सारा
ताप पिघलाता है
तब जाकर
शीतलता पाता है
धरा का मन
यह अकेलापन
सच मानो तो
आग के जैसा ही है
तुम आकर
विरह को बुझाओ
बरस जाए
ज्यों सावन में घन
और मिटाए
हर एक जलन
है निवेदन
तुम भी यों ही करो
बरस जाओ
बुझ चले विषाद
बचे तो बस
प्रेम की ही अगन
जिसमें फिर
कुंदन का- सा बन
निखर जाए
मेरा रंग औ रूप
मुझको मिले
केवल औ केवल
सिर्फ तुम्हारी
गुनगुनी, गुलाबी
नेह की धूप
भोर से साँझ तक
जो मुझे सहलाए।