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कि ज़रा लम्बी राह लेकर
सर झटककर, निकला जा सके काम पर ।
मन टूटे तो टूटे, देह न टूटे
कि निपटाए जा सकें
भीतर बाहर के सारे काम ।
इतनी भर जगे आँच
कि छाती में दबी अगन
चूल्हे में धधकती रहे
उतरती रहें सौंधी रोटियाँ
छुटकी की दाल भात की कटोरी ख़ाली न रहे ।
इतने भर ही बहें आंसू
कि लोग एकबार में ही यक़ीन कर लें
आँख में तिनके के गिरने जैसे अटपटे झूठ का ।
इतनी ही पीड़ाएँ झोली में डालना ईश्वर !
कि बच्चे भूखे रहें, न पति अतृप्त !
सिरहाने कोई किताब रहे
कोई पुकारे तो
चेहरा ढकने की सहूलियत रहे ।
बस, इतनी भर छूट दे प्रेम
कि जोग-बिजोग की बातें
जीवन मे न उतर आएँ ।
गंगा बहती रहे
घर-संसार चलता रहे ।