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"सुगन्ध की आवाज़ में / अशोक शाह" के अवतरणों में अंतर
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याद करता हूँ-
उत्सवों के दिन
दिन उमंगो के
बचपन भरे, यौवन के
तब मैं भरा था दिनों से
दिनों से भरा था तो
खुशियों से लदा था
दिन थे खेलने के
भागने दौड़ने के
हारने के दिन थे
दिन थे हो गये परिवार के
जीवन यह जीते हुए
ख़्वाहिश है बस इतनी कि
जब तक जीऊँ
दिनों से भरा होऊँ
जीवन से खाली न हों
जीने के दिन
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